________________
तृतीय खण्ड
२२७
तक उस परिस्थिति में सुधार न हो तब तक योग्य पुरुषार्थ करने पर भी जो सहन करना पड़े वह पापोदय का ही परिणाम गिना जाय ।
यहाँ पर हमारा प्रश्न समाजरचना के बारे में है । खराब समाजरचनाओं में से एक रचना वर्णाश्रम- व्यवस्था की है । इस दूषित प्रणालिका के अनुसार समाज ने जन्म एवं कुछ धन्धे-रोजगारों के कारण अमुक वर्गों को उच्च और अमुक वर्गों को नीच मान लिया है। ऐसे दुषित रचनावाले समाज में अथवा देश में समाज द्वारा कल्पित नीचवर्गमें उत्पन्न होने से दुषित समाजरचना का बलि होना पड़ता है, अपने से उच्च माने जानेवाले वर्गों की ओर से हीनदृष्टि तथा घृणा और अपमान आदि का सन्ताप सहन करना पड़ता है । इस प्रकार का अन्याय क्लेश-सहन समाज द्वारा सर्जित, नहीं नहीं, कल्पित समाज-रचना के अभारी है । क्रान्तिकार वीरपुरुष पैदा होकर दूषित समाजरचना को सुधारने का प्रयत्न करे और उनके प्रयत्नों की परम्परा के परिणामस्वरूप समाजरचना में यदि सुधार हो और जन्म के तथा धन्धे-रोजगारों के कारण उँच-नीच मानने की दृष्टि में परिवर्तन हो तब वातावरण सुधर जाने पर समाज कल्पित जातिगत ऊँच-नीच के भेदों के बखेड़े सहन करने नहीं पड़ेंगे; परन्तु जब तक इस प्रकार की सुधारणा का योग्य प्रचार और प्रसार न हो तब तक तथाकथित नीच वर्ग में पैदा होनेवाले को योग्य पुरुषार्थ करने पर भी कष्ट सहन करना पड़े और वह क्लेश-सहन मूल में जिस कर्म पर आश्रित माना जाय उसे 'नीच-गोत्र' कर्म कहते हैं ।
ऊपर कहा वैसा यदि समाजिक रचना में सुधार हो, जन्म-जाति अथवा धन्धे-रोजगारों के आधार पर खड़ी की हुई ऊँच-नीच के भेदों की कल्पना नाबूद हो अर्थात् इस प्रकार की कल्पना के आधार पर कोई ऊँचनीच न समझा जाय ऐसा युग आए तब भी 'गोत्रकर्म का स्थान तो रहने का ही और वह ऊपर के प्रकार की नहीं तो दूसरे प्रकार की उच्च-नीचता का खुलासा बैठाने के लिये । संस्कारी, सदाचारी कुल-कुटुम्ब में पैदा होना अथवा असंस्कारी असभ्य और हीन आचारबाले कुटुम्ब में पैदा होना इसके मूल में कोइ 'कर्म' तो मानना ही पड़ेगा । अतः वह परिस्थिति गोत्र-कर्म पर अवलम्बत समझी जायगी--अनुक्रम से उच्च-गोत्र और नीच-गोत्र कर्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org