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जैनदर्शन विद्योपासना, बलशूरता, कृषि आदि व्यापार-विकास एवं व्यावहारिक बुद्धि तथा सेवा-वृत्ति-इन चारों तत्त्वों की अमुक मात्रा में आवश्यकता है । इन चारों का समुचित मात्रा होने पर ही मनुष्यत्व-सम्पन्न होता है ।
और शरीर में मस्तक, हाथ, पेट व पैर इन अंगों में से किसे उच्च और किसे नीच कहें ? पर की क्या कम उपयोगिता है ? इसी प्रकार पैर के स्थान के शूद्र की उपयोगिता कम कैसी समझी जाय ? सब अंग यदि परस्पर मिलजुकर कार्य करे तो वे स्वयं तथा अवयवी शरीर जीवित और सुखी रह सकते हैं, और यदि एक दूसरे के साथ लड़ने-झगडने लगे अथवा ईर्ष्यावश रूठ बैठे तो उन सबके लिये मरने का समय आ जाय । ठीक इसी भाँति ब्राह्मणादि वर्ण परस्पर उदारता से, वात्सल्यभाव से हिल-मिलकर रहें तो इसमें उन सबका उदय-अभ्युदय है और झुठे अभिमानवश एक-दूसरे का तिरस्कार करने में इन सबका विनिपात है ।
थोडा और अधिक विचार करें ।
उच्चता और नीचता प्रकृतिधर्मकृत और मानव-समाज द्वारा कल्पित ऐसी दो प्रकार की गिनाई जा सकती है । इन दोनों में से सर्वप्रथम हमें दूसरे प्रकार की देखें ।
यह तो मानी जा सके ऐसी बात है कि दुःखजनक परिस्थिति में पैदा होना पापोदय का और सुखजनक परिस्थिति में पैदा होना पुण्योदय का परिणाम है । इस तरह यदि रोगी घर में, दुर्बुद्धि, अथवा मूर्ख परिवार में अथवा दरिद्र-कंगाल कुटुम्ब में पैदा होना पापकर्मों के उदय का परिणाम है, तो खराब राज्य अथवा खराब शासनवाले देश में पैदा होना भी पापोदय का परिणाम समझा जा सकता है और इसी प्रकार खराब सामाजिक रचनावाले समाज में पैदा होना भी पापोदय का परिणाम माना जा सकता है। रोगी वातावरणवाले घर में पैदा होकर मनुष्य कालक्रमेण अपने घर को सुधारे और आरोग्य के अनुकूल बनावे तब की बात तब, और इसी प्रकार कोई मनुष्य दरिद्र घर में पैदा होकर कालक्रमेण अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधारे तब की बात तब, परन्तु जन्म के समय दुःखोत्पादक परिस्थिति में जन्म लेना और जब
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