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________________ तृतीय खण्ड २२५ जो मनुष्य मुख्यतया शास्त्राभ्यास करके तथा पठन-पाठन से लोगों में ज्ञानसंस्कार सींचने का व्यवसाय करने लगे उन्हें ब्राह्मण कहा गया । जो मुख्यतः अपने जीवन की भी परवा किए बिना आततायियों तथा दुष्ट आक्रमणकारों से प्रजा का रक्षण करने का तथा समाज में चलनेवाली दुष्प्रवृत्तियों को रोककर समाज को स्वस्थ रखने का व्यवसाय करने लगे वे क्षत्रिय कहलाए । जो लोग मुख्यतः खेती तथा अन्य व्यापार - रोजगार करके समाज के लिये आवश्यक वस्तुएँ हाजिर करने का व्यवसाय ले बैठे वे वैश्य कहलाए । और जो लोग मुख्यतः शारीरिक श्रम करके समाज की दूसरे रुपसे सेवा करने लगे वे शुद्र कहलाए । इस पर से ज्ञात होगा कि ये चारों प्रकार की प्रवृत्तियाँ समाज की सुख-सुविधा तथा सामाजिक विकास के लिये आवश्यक है । इनमें की एक भी प्रवृत्ति के बिना समाज टिक नहीं सकता और न अपना विकास अथवा उन्नति साध सकता है । अतः अमुक मनुष्य अमुक व्यवसाय करता है इसलिये वह ऊँचा है और अमुक मनुष्य दूसरा व्यवसाय करता है इसलिये वह नीचा है ऐसा न समझना चाहिए । केवल व्यवसाय के भेद पर दृष्टि रख कर ऊँच-नीच का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता । उसके लिये तो दूसरी बातें ध्यान में लेने की है । मनुष्य चाहे जो हो और चाहे जो धन्धारोजगार करता हो, परन्तु वह गुण से उच्च ( सच्चरित) होना चाहिए | इतना ही नहीं, वह अपने कर्म से भी उच्च होना चाहिए । कर्म से उच्च अर्थात् अपना-अपना विशिष्ट व्यवसाय प्रामाणिकता - पूर्वक धर्मबुद्धि से तथा मन लगा कर योग्यरूप से करनेवाला । इस तरह मनुष्य यदि गुण एवं कर्म से उच्च हो तो वह उच्च है । ब्राह्मण का व्यवसाय करनेवाला मनुष्य यदि दुश्चरित हो अथवा अपने कर्तव्य के पालन में धूर्तता करे तो वह नीच है और शूद्र का व्यवसाय करनेवाला मनुष्य यदि सच्चरित हो और अपने कर्तव्य का बराबर पालन करता हो तो वह उच्च है । अतः जन्म के कारण से किसी को ऊँच-नीच नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः मनुष्य में ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व तथा शूद्रत्व इन चारों तत्त्वों का सुभग संगम होना चाहिए, क्योंकि जीवनचर्या में स्वाध्याय या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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