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जैनदर्शन
करनेवाले मनुष्य को इस मद के दुष्परिणामस्वरूप ये चीजें हीन कोटि की मिलती हैं ।
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भौतिक सम्पत्ति विनाशशील है, अतः उस पर अभिमान करना समझदारी की कमी को सूचित करता है । विद्यासम्पत्ति अभिमान करने के लिये नहीं है, परन्तु विद्याहीनों की ओर अनुकम्पा - भाव रख कर उसे जीवन के कल्याण के लिये उन पर ज्ञान का प्रकाश डालने में उसकी सार्थकता है । कुल--जाति का गौरव अथवा उच्च समझे जाने वालों का उच्चत्व मानवता के सद्गुणों को अपनाने में और निम्नश्रेणी के गिने जानेवाले मनुष्यों के साथ आत्मीय भाव से बरतने में है, नहीं कि अपने बडप्पन का अभिमान करके और दूसरों को उनके कुल - जाति के कारण हीन समझकर उनके साथ हीनतायुक्त व्यवहार करने में । उच्चता अथवा नीचता, बडाई अथवा लघुता जन्म के कारण नहीं है । गुण-कर्मों से सम्पादित बडाई ही सच्ची बडाई है। जहाँ इस प्रकार की बडाई हो वहाँ अभिमान जैसे दोषों को अवकाश ही नहीं मिल सकता । सदगुणों का अभिमान भी सद्गुणों के लिये लाञ्छनरुप है । अभिमान प्रगति का अवरोधक है । वह जीवन की नैसर्गिक मधुरिमा को खट्टी बना देता है । अभिमान करने का कोई स्थान ही नहीं है । अपने को ऊँचा समझ कर घमंड़ करनेवाला अपने आपको ऊपर से नीचे गिराता है । उच्चता सद्गुणों और सत्कर्मों के संस्कार में है । जहाँ यह संस्कारिता प्रकाशित हो वहाँ ऊँचनीचता की भेददृष्टि होने नहीं पाती; वहाँ तो निम्न स्तर के मनुष्यों के साथ भी सहानुभूति और मैत्री का पवित्र प्रवाह बहता ही रहता है । उच्चता सद्गुणों - सत्कर्मों में और नीचता गुण-कर्म-हीनता में समझना यही सच्ची दृष्टि है । जन्म के कारण मनुष्य को उत्तम अथवा अधम मानना यह एक भ्रामक दृष्टि है ।
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समाज के धारण-पोषण के लिये समाज के व्यक्तियों को जो अनेकानेक व्यवसायिक प्रवृतियाँ करनी पड़ती हैं उनको स्थूलरूप से चार विभागों में बाँटा गया और उन चार प्रकार की व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ करनेवालों का अलग-अलग रुप से पहचानने के लिये अलग-अलग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम दिए गए ।
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