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तृतीय खण्ड
२२३ शरीरमें शस्त्र घुसने ही वाला था, यहसब नियत था, तब हत्या करनेवाला का क्या अपराध ? अग्नि की ज्वाला में फँसे हुए साधुपुरूष को आग बुझाकर योग्य उपचार कर के बचानेवाले को अथवा भूख से प्राणान्त स्थिति में आए हुए किसी महात्मा आदि को भोजन देकर बचानेवाले को पुण्य क्या मिलेगा ? क्योंकि बचानेवाले का उस स्थान में आना नियत था । अग्नि का शान्त हो जाना नियत था । महात्मा के मुख में भोजन पड़ना नियत था । यह सब नियत था फिर तथाकथित बचानेवाले ने नया क्या किया ? उफ ! कैसा भयंकर यह वाद !
इस नियतिवाद में भविष्यनिर्माण जैसा कुछ रहता है ? सारा भविष्य नियत होकर पड़ा हो वहाँ आगे का विचार अथवा योजना करने की बात ही नहीं रहती, फिर प्रयत्न करने की तो बात ही क्या ? सचमुच, प्रयत्न अथवा पुरुषार्थ का उच्छेद करनेवाला कोई भी वाद मानवजाति के लिये घोर अन्धकाररूप है, भीषण शापरूप है ।
हमें यह समझना चाहिए कि निमित्त-कारण अपने स्थान में बलवान् है । द्रव्य में कार्य के उपादान में कार्य विद्यमान होता है, परन्तु वह विद्यमान होता है शक्तिरूप से-अव्यक्तरूप से । उसे व्यक्त (आविर्भूत) करने के लिये निमित्तयोग की सख्त जरूरत है । मन्दिरमूर्ति, शास्त्रवाचन, सन्त का समागम, उनके उपदेश का श्रवण तथा अनुकूल स्थान में निवास, अनुकूल भोजनपानइन सबकी उपयोगिता किसे मंजूर नहीं है ? यह सब उपयोगी है ऐसा मानकर उसका अमल करनेवाला निमित्तकारण की योग्य शक्ति को कबूल न करे तो वह बर्तन-विसंवादी वाग्व्यापार समझा जायगा ।
(१९) जाति-कुलमद : आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में कहते हैं
जातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपः श्रुतैः ।
कुर्वत् मंद पुनस्तानि हीनानि लभते नरः ॥४-१३|| अर्थात् जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप तप और ज्ञान का मद
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