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तृतीय खण्ड
२३१ समतापूर्वक सहन करें । इस प्रकार समभावपूर्वक सहन करने का सामर्थ्य, जीवन को अहंकार तथा ग्लानि से मुक्त रखने का बल कर्मनियम के तत्त्वज्ञान में से हि प्राप्त होता है । और भगवान् के आलम्बन का योग उसमें खूब शान्ति, सान्त्वन, आश्वासन और प्रेरणा प्रदान करता है ।
मनुष्य की स्तुति अथवा उसकी भक्ति के उपचारों से भगवान् यदि खुश होता हो तो स्तुति अथवा भक्ति न करनेवाले के ऊपर वह नाराज भी हो, परन्तु भगवान् (परमात्मा) ऐसी प्रकृति का नहीं होता । वह तो वीतराग है । उसे तो पूर्ण-पूर्णात्मा-पूर्णानन्द-विश्वम्भर कहते हैं । वह हमारी भक्ति के गाने-बजाने से, अलंकार-आभूषण चढाने से अथवा मिठाई की थालियाँ भोग चढ़ाने से प्रसन्न होता है ऐसा मानना वस्तुतः भगवान् की भगवत्ता के बारे में अपना अज्ञान सूचित करना है । मनुष्य का हृदय यदि कल्याणकामी हो, भगवद्भिमुख-भगवद्भक्त-भगवदेकशरण हो और भगवत्समरण से सत्त्वसंशद्ध तथा प्रसादपूर्ण बनता जाता हो तो उसकी यह सधती हुई उज्ज्वलता और निर्मलता ही किसी का न दिया हुआ और अपने ही सामर्थ्य से उपार्जितसम्पादित सहज पुरस्कार है । भगवत्स्मरण कोई साधारण मार्ग नहीं है। वह तो एक सबल साधन है । परमशुभ्र, परमदीप्र, परमोज्ज्वल परमतत्त्व के एकाग्र ध्यान का पक्व होता जा रहा बल ध्याता के हृदय के दरवाजे खोल देता है और उस पर एक ऐसी प्रतिक्रिया करता है जिससे उसकी मोहवासना पर जबरदस्त धक्का लगता है और ध्येयत्त्व की शुद्धता की रोशनी उस (ध्याता) पर फैलने लगती है । शुद्ध एवं उच्च विषय की भावना मन पर वैसी ही शुद्ध तथा उन्नत छया डालती है, जबकि अशुद्ध एवं निकृष्ट विषय की भावना का प्रभाव मन पर अशुद्ध एवं निकृष्टि पड़ता है । ध्यान का विषय जैसा हो मन पर उसका असर भी वैसा ही होता है । वीतराग परमात्मा के चिन्तन, स्मरण उपासन [इस प्रकार का परमात्मा के साथ का मानसिक सत्संग] मन के मोहरूपी कालुष्य का प्रक्षालन करने में खूब कार्यक्षम होते हैं । इस प्रकार की भगवदुपासना से चित्तशुद्धि, मानसिक विकास और प्रसन्नता का जो लाभ प्राप्त होता है वह भगवान् का दिया हुआ कहा जा सकता है, किन्तु केवल उपचार से । यदि भगवान् के हाथ में सीधे तौर से प्रकाश देने का होता
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