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________________ ! २३२ जैनदर्शन तो किसी के अन्तःकरण में वह अन्धकार रहने न देता, अधम और दुराचारी सबको सद्बुद्धि सम्पन्न और सदाचारी बना देता, प्रत्येक प्राणी को उसकी निम्न भूमिका पर से उठा कर ऊपर की भूमिका पर चढा देता, सम्पूर्ण विश्व की आत्माओं को पूर्ण प्रकाशमय तथा आनन्दी बना देता । परन्तु यह सब तो हर प्राणी को स्वयं अपने सामर्थ्य से ही सिद्ध करने का है स्वयं अपने ही प्रयत्न से, अपने ही पुरूषार्थ से बनाने का है। दूसरा कोई (ईश्वर) भी इसे नही बना देता, नही साध देता । भगवान यदि प्रसन्न होता तो वह सिर्फ हमारे अच्छे गुण-कर्मों पर ही प्रसन्न हो सकता है, हमारी सच्चरितता अथवा सदाचरणशीलता पर ही प्रसन्न हो सकता है । इसके अतिरिक्त उसे प्रसन्न करने का दूसरा कोई मार्ग नहीं है - नाऽन्यः पन्था विद्यते शिवाय । जिस प्रकार सूर्य प्रकाशित होता है परन्तु उसका प्रकाश लेना या नहीं यह मनुष्य की अपनी इच्छा की बात है, परन्तु लेनेवाले को लाभ है और न लेनेवाले का स्वास्थ्य बिगड जाता है । उसी प्रकार सन्त अथवा महान् आत्मा के सदुपदेश का जो प्रकाश लेगा उसका कल्याण होगा, वह उस पार उतर सकेगा और नहीं लेनेवाला अन्धकार में भटकता रहेगा । यद्यपि परमात्मा अथवा भगवान् नहीं दिखता, परन्तु उसके स्वरूप की अपने स्वच्छ अन्त:करण में यथार्थ रूप से कल्पना कर के उसके मानसिक सान्निध्य में रहने से मनुष्य की दृष्टि का शोधन होता है, उसे बल और प्रेरणा मिलते हैं । इस सान्निध्य का लाभ जैसे- जैसे अधिक लेने में आता है वैसे वैसे मन के भाव, उल्लास और शुद्धता बढ़ते जाते हैं । इस प्रकार उसका मोहावरण हटता जाता है, वासना झडती जाती है और उसका आत्मा सत्त्वसम्पन्न (अधिक से अधिक सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरित्र से सम्पन्न) होता जाता है । इस भाँति उच्च दशा पर आरूढ़ होकर आत्मा महात्मा की भूमिका में से आगे बढ़कर परमात्मपद की भूमिका में प्रविष्ट होता है । भगवद्भक्ति इस प्रकार विकास के पथ पर आरूढ़ होने में और आगे बढ़ने में उपयोगी होती है । इस तरह भगवद् विषयक और आत्मकल्याण साधने का सच्चा ज्ञान होना वह ज्ञान, भगवान् की शरण में जाकर भगवत्प्रज्ञप्त सन्मार्ग का पूजक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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