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तृतीय खण्ड बनना वह भक्ति और उस सन्मार्ग पर चलना वह कर्म-इस भाँति ज्ञान-भक्तिकर्म का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है और वे परस्पर एकरस बनकर मुक्ति साधक एक परमतत्त्व बनते हैं।
विशेषरूप से विचार करने पर ज्ञात हो सकता है कि भक्ति (भक्तिभाव) के साथ ज्ञान मिला हुआ है । जिसे हमारी भक्ति हमें अर्पित करना है उसे पहचाने बिना उस पर भक्तिभाव कैसे उत्पन्न हो सकता है ? भक्तिपात्र की विशिष्टता का ज्ञान होने के बाद उसकी ओर जो सात्विक शुभ आकर्षण पैदा होता है उसी का नाम भक्तिभाव है । इस तरह भक्ति के पीछे भक्तिपात्र की विशिष्टता का ज्ञान रहा हुआ है । और साथ ही साथ 'इस भक्तिपात्र के सत्संग से मेरा उद्धार हो सकेगा' ऐसा ज्ञान अथवा संवेदन भी रहा हुआ है । इस प्रकार भक्ति के मूल में ज्ञान रहा हुआ है । ज्ञान के बिना भक्ति क्या ? ज्ञान के आधार पर ही भक्ति उत्पन्न होती है । दूध में जो स्थान शक्कर का है वही स्थान ज्ञान में भक्ति का है । जिस प्रकार दूध में शक्कर मिलने पर वह एक मिष्ट पेय बन जाता है उसी प्रकार ज्ञान में भक्ति मिलने पर वह एक विशिष्ट ही प्रकार का तत्त्व बन जाता है। भक्तिपात्र की विशिष्टता का ज्ञान होने के पश्चात् उसकी ओर, ऊपर कहा उस तरह, कल्याण रूप आकर्षण अथवा शुद्ध सात्त्विक भक्तिभाव जब पैदा होता है तब उस ज्ञान में भक्तिरस मिला ऐसा कहा जा सकता है । इस प्रकार ज्ञान में भक्ति मिलने पर वह एक सुन्दर मिश्रित रस बन जाता है ।
और यह समझ में आ सके ऐसा है कि जिसका जिसमें उन्नत भक्तिभाव होता है वह उसका अनुसरण करता है, वह उसमें तन्मय हो जाता है, उसकी आज्ञा के अधीन वह रहता है, उसके निर्दिष्ट मार्ग पर वह चलता है और अपने आपको-अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसको अर्पित कर देता है;
और आगे बढ़कर भक्तजन अपने उपास्य जैसा ही बनने के लिये उत्कण्ठित हो जाता है, उसकी पदपंक्तियों का अनुसरण करके उसके जैसा बनने का सबल प्रयत्न करता है, उसके जैसा सदगुणी, उसके जैसा सच्चरित्री और उसके जैसा सत्कर्मा बनने के लिये उसके चरणो में अपना जीवन निछावर कर देता है । समर्पण केवलज्ञान से नहीं होता । ज्ञानसंयुक्त भक्ति के बल
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