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जैनदर्शन
पर ही समर्पण की भावना और उसका उत्थान शक्य है । इस तरह ज्ञानसे यक्त भक्ति अथवा भक्ति से सुवासित ज्ञान कर्म का (चारित्र अथवा जीवनविधि का) निर्माता बनता है ।
इस प्रकार ज्ञान, भक्ति और कर्म ये तीनों मिलकर, एक-दूसरे में ओतप्रोत होकर, एकरस बनकर मोक्ष का-निःश्रेयस का-परमकल्याणपद का एक, अनन्य और असाधारण मार्ग बनता है ।
संसार में सबसे अधिक प्रेम-भाजन माता समझी जाती है । उसके आगे जिस प्रकार उसका बालक प्रेममस्त बनकर मातृवात्सल्य के मधुर आनन्द-रस का आस्वाद करता है उसी प्रकार भगवान् के आगे-भक्तजन भक्ति के आवेश में मुग्ध बनकर निर्मल भक्तिमय सात्विक प्रेमरस का उपभोग करता है । इस प्रकार अपने जीवन तथा आचरण को शुद्ध करने का मार्ग भी उसके लिये सरल बन जाता है । प्रभु का भक्त होकर यदि आचरण मलिन रखे तो यह कैसे संगत हो सकता है ? निर्मल आत्मा के साथ मलिन आत्मा का मिलाप होगा कैसे ? इस तरह की स्वामीसेवक की जोड़ ही नहीं बन पाती । भक्त को तो भक्ति के मार्ग द्वारा निर्मलचेता और सदाचरणी बनना ही होगा । तभी प्रभु के साथ उसका मेल जम सकता है । इस तरह भक्ति का पर्यवसान आचरण की-व्यवहार की-चारित्र की शुद्धि में ही आता है और आना चाहिए । तभी और वही भक्ति की सफलता है ।
और मैं तो यहाँ तक कह सकता हूँ कि एक बार यदि ईश्वरवाद असिद्ध रह जाये तो भी बुद्धिभावित--भावना में विराजित ईश्वर अथवा ईश्वरनिष्ठा हृदय को सान्त्वना और जीवन को गति देने में स्पष्ट उपयोगी है । अतः अनुभव से भी यह कहा जा सकता है कि ईश्वरवाद का अवलम्बन परमात्मा का आसरा जीवन के लिये सचमुच आश्वासक और प्रेरक है ।
१. जैनदर्शनप्रसिद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्र ही ज्ञान-भक्ति-कर्म हैं । दर्शन का भक्ति से अथवा
भक्ति का दर्शन से निर्देश किया जा सकता है । और चारित्र कहो या कर्म कहो एक ही बात है।
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