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पंचम खण्ड वादों से विरक्त हो गया है वह भी उपर्युक्त सर्वग्राह्य 'मैं' के तत्त्व पर प्रतिष्ठित सदाचार-नीति की (सत्य-शील-सदाचार की) उपासना द्वारा अपना कल्याण कर सकता है । वस्तुतः ऐसी उपासना के बल पर चित्तशुद्धि अधिकाधिक सधती और विकसित होती जाती है। विकसित होते-होते ऐसी उज्ज्वल बन जाती है कि अगोचर सत्य भी, जैसे होते हैं वैसे, उस महामानव की दृष्टि के सम्मुख स्पष्ट हो जाते हैं ।
इस पर से समझा जा सकता है कि अनात्मवादी भी यदि शुद्ध सदाचरणपरायाण होगा तो उसकी ऐसी साधना आत्मतत्त्व की साधनारूप ही समझी जायगी । उसकी यह साधना अनजान मे भी (आत्मतत्त्व के स्वतन्त्र अस्तित्त्व से अज्ञात होने पर भी) उसके आत्मा के शुद्धिकरण में ही पर्यवसित होने की । इसलिये ऐसा मनुष्य मान्यता की दृष्टि से अनात्मवादी कहलाने पर भी आचरण की दृष्टि से आत्मवादी है । इसके विपरीत, आत्मवादी का आचरण यदि आत्मा के लिये हितावह न हो-सदाचारपूत न हो तो वह भले ही मान्यता से आत्मवादी कहलाए, परन्तु वस्तुतः वह अनात्मवादी ही है । बोलने जितना ही वह आस्तिक है बाकी वह स्व-पर दोनों के लिये भयरूप ऐसा नास्तिक ही है। इसी प्रकार ईश्वरवाद के बारे में समझना चाहिए । ईश्वर अथवा परमात्मा सदाचारी बनने का, विचार-वाणी-व्यवहार को विशुद्ध रखने का आदेश देता है । अब, जो मनुष्य ईश्वरवाद में नहीं मानता फिर भी ईश्वर की इस आज्ञा का पालन करता है अर्थात् सदाचार के शुभ मार्ग पर चलता है वह क्या ईश्वरभक्त नहीं है ? वह मान्यता की दृष्टि से भले ही निरीश्वरवादी हो, परन्तु तत्त्वतः ईश्वरभक्त है, क्योंकि उसे ईश्वर के अस्तित्व की कल्पना न होने पर भी जिस मार्ग पर चलने का ईश्वर का आदेश है उसी मार्ग पर वह चलता है । विश्वम्भर भगवान् को पूजक के पास से क्या चाहिए ? कुछ नहीं; और यदि उसे कुछ चाहिए तो वह इतना हि कि मनुष्य मनुष्य बने । वह यदि पूजक को आज्ञा करे तो वह इतनी ही कि तू मनुष्य बन । जीवन में से दोषों एवं बुराईयों को दूर करके सद्गुणी बन । सदाचारी और सत्कर्मा बन । मनुष्य ऐसा जीवन जीए इसीलिये अद्वैतवाद ने जड़ तत्त्व के ऊपर का मोह झाडकर और आत्मदृष्टि को जागरित करके ब्रह्मनिष्ठ अर्थात् आत्मनिष्ठ
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