________________
३८२
जैनदर्शन आत्माराधक बनने का उपदेश दिया है । द्वैतवाद ने चेतन--तत्त्व के साथ ओतप्रोत हुए अचेतन तत्त्व (जड़-तत्त्व) को पहचान कर उसे अपने चित्स्वरूप में से हटाने का उपदेश दिया है, अर्थात् निर्मोह-दशा प्राप्त करके अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को प्रगट करना समझाया है । क्षणिकवाद ने समूचे सांसारिक विस्तार को क्षणिक (क्षणभंगूर) बताकर और 'क्षणिक' वस्तु के ऊपर मोह कैसा ?' ऐसा समझाकर मोह-वासना को हटाने के सदुपदेश में अपना योग प्रदान किया है । शून्यवाद ने विनशनशील जगत् का चित्र उपस्थित करके 'अन्ततः सब सूना-सूना हो जाता है' ऐसे सर्वस्पर्शी अनुभव के आधार पर, संसार की असारता के अर्थ में, दौर्जन्यप्रेरक दुःखद मोह को दूर करने के इरादे से शून्यवाद बतलाया है । ज्ञानवाद ने लाभप्रद वस्तु को हानिकर और हानिकर वस्तु को लाभप्रद, हित को अहित और अहित को हित, प्रिय को अप्रिय और अप्रिय को प्रिय समझ लेनेवाला मन किसे अज्ञात है ?—ऐसा सूचित करके अर्थात् वस्तुस्थिति चाहे जैसी हो परन्तु उसकी नानारंगी कल्पना ही चित्त को आवृत्त करके उसे नानारंगी बनाती है । ऐसी लोकप्रतीति को उपस्थित करके सत्य-शील-सदाचार से साध्य चित्तशुद्धि में से प्रकट होनेवाली विशुद्ध अनुभूति और परिणति पर जीवन-स्वास्थ्य का अवलम्बित होना प्रतिपादित किया है । जगत्कर्तृत्ववाद ने ईश्वर के ऐश्वर्य का वर्णन करके और उसकी ओर भक्तिभाव प्रगट करने का उपदेश देकर उस भक्ति के अनुसंधान में उसके सच्चे फल स्वरूप सच्चारित्रशील बनने की उद्घोषणा की है। इस उद्घोषणा के पीछे अभिप्राय यही है कि सच्चारित्र के बिना भक्ति नहीं और भक्ति के बिना सच्चारित्र का विकास नहीं । ईश्वर को जगत्कर्ता न मानने वाले वाद ने स्वयं आत्मा को स्वयम्भू शक्तिशाली बताकर उस पर के कार्मिक आवरणों के आक्रमणों को दूर हटाने में अपने समर्थ आत्मबल का उपयोग करने की प्ररूपणा की है । इस तरह परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाले पौराणिक वादों के पुरस्कर्ताओं ने अपने अपने वाद के पुरस्करण के मूल में जीवन को सद्गुणी, सदाचारी, सत्कर्मा बनाने का ही एकमात्र मुख्य ध्येय रखा है। इस ध्येय को कोई भी मतावलम्बी दार्शनिक अथवा वादी साध सकता है और ऐसा करके अपनी कल्याणसाधना के साथ ही साथ इस प्रत्यक्ष दृश्यमान विश्व को सुन्दर बनाने में अपना भरसक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org