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________________ षष्ठ खण्ड ४१७ विवेचन पहले किया जा चुका है । वहाँ यह कहा गया है कि मानव-समाज में परस्पर सौमनस्य स्थापित करने का मार्ग अनेकान्तदृष्टि के योग से सरल बनता है। अहिंसा से अनेकान्तदृष्टि स्फुरित होती है और अनेकान्तदृष्टि के योग से अहिंसा जागरित होती है। इस तरह इन दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हैं । हिंसा में असत्य, चोरी आदि सब दोषों और सब बुराइयों का समावेश हो जाता है । हिंसा, झुठ, चोरी शाठ्य, धूर्तता आदि सब दोष परिग्रह के आवेश में से ही उत्पन्न होते हैं । यही समाज में विषमता पैदा करता है और वर्गविग्रह जगाकर दंगे-फिसाद मचाता है । समग्र पापों, सब प्रकार की स्वच्छन्दता और विलासोन्मादों का मूल यही है । अहिंसा की साधना परिग्रह के समुचित नियन्त्रण के बिना अशक्य होने से परिग्रह का नियमन जीवन-हित की तथा समाज-हित की प्रथम भूमिका बनता है । इसीलिये गृहस्थवर्ग तथा समग्र-समाज के कल्याण के लिये इस महात्मा ने परिग्रहपरिणाम पर खास भार दिया है । इसके बिना वैयक्तिक तथा सामाजिक सुख-शान्ति एवं मैत्रीभाव स्थापित नहीं हो सकता । इस तरह लोगों का व्यावहारिक जीवन उज्ज्वल तथा सुखशान्तिमय बने इस दिशा में इस सन्तपुरुष के उपदेश का प्रचार व्यापक बना है । आजकल साम्यवाद और समाजवाद "का त्वं शुभे ! कस्य परिग्रहो वा ?"- सर्ग १६, श्लोक ८ [तू कौन है ? किसकी पत्नी है ?] इस पर से देखा जा सकता है कि प्रभु पार्श्वनाथ की संस्था में स्वीकृत चार याम (महाव्रत) में से 'परिग्रहविरति' से द्रव्यादि और पत्नी (मैथुन) उभय का त्याग गृहीत होता था वह परिग्रह शब्द के द्रव्यादि और पत्नी ये दो अर्थ सीधे तौर पर होने से सीधे तौर पर गृहीत होता था । 'ठाणांग' सूत्र के चतुर्थ स्थान के प्रथम उद्देश में (पत्र २०१ में ) भगवान् महावीर से पहले के समय में प्रचलित चार महाव्रतों का उल्लेख आता है । उसमें चौथे महाव्रत का निर्देश 'बहिद् धादाणाओ वेरमणं 'शब्द से किया गया है । इस शब्द में आए हुए 'बहिद्धादाण' का अर्थ टीकाकार अभयदेवसूरि ने दो तरह का किया है : (१) 'बहिद्धा' (बहिर्धा) अर्थात् मैथुन और 'आदाण' (आदान) अर्थात् परिग्रह । इस प्रकार ये दोनों 'बहिद्धादाण' शब्द से लिये हैं, और (२) दूसरी तरह के अर्थ में इस समूचे शब्द का अर्थ 'परिग्रह' बतलाया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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