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________________ ४१६ जैनदर्शन जीवन के दो अंश है : विचार और आचार । इन दोनों को सुधारने के लिये दो औषधियाँ जिनेन्द्र भगवान् महावीर देव ने विश्व को प्रदान की है : अनेकान्तदृष्टि और अहिंसा । पहली [अनेकान्तदृष्टि] विचारदृष्टि को शुद्ध करके उसे सम्यगदृष्टि बनाती है और दूसरी [अहिंसा] आचार को शुद्ध एवं मैत्रीपूत बनाती है । श्री महावीर देव के शासन की विशेष ध्यान आकर्षित करनेवाली तीन विशेषताएँ हैं : अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह' । अनेकान्तदृष्टि का १. तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चाउज्जाम, (चातुर्याम) धर्म था । इसका उल्लेख बौद्ध त्रिपिटक ग्रन्थों में तथा उत्तराध्ययनसूत्र के २३वें अध्ययन की २३वी गाथा में आता है । इस चातुर्याम का अर्थ चार याम या यम अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह । इसका अर्थ यह हुआ कि जिनेन्द्र भगवान् पार्श्वनाथ की संस्था द्वारा स्वीकृत महाव्रतों में ब्रह्मचर्य का अलग उल्लेख नहीं था । इसके बारे में ऐसा बतलाया जाता है कि वह (ब्रह्मचर्य) अपरिग्रह में अन्तर्गत थानो अपरिग्गहियाए इत्थीए जेण होई परिभोगो । ता तव्विरईए च्चिअ अबंभविरइ त्ति पण्णाणं ॥ अर्थात्-अपरिगृहीत स्त्री का भोग नहीं होता अर्थात् स्त्री के भोग में ही स्त्री परिगृहीत हो जाती है । अतः परिग्रह की विरति में अब्रह्मचर्य की विरति आ जाती है । इस बारे में तनिक अधिक विचार करने पर देखा जा सकता है कि प्राचीन समय में 'परिग्रह' शब्द का इतना विशाल अर्थ होता था अथवा वह शब्द ऐसा अनेकार्थक था कि उसमें पत्नी का समावेश भी हो जाता था । इतना ही नहीं, संस्कृत शब्दकोष तथा महाकवियों के काव्यों में भी 'परिग्रह' शब्द पत्नी के वाचकरूप से प्रयुक्त हुआ है । जैसे की - अमरकोष के नानार्थ वर्ग में'पत्नीपरिजनादानमूमशापाः परिग्रहाः' ॥२३७॥ 'परिग्रहः कलत्रे च xx '- अजय हैम अभिधानचिन्तामणि के तृतीय काण्ड में'xx जाया परिग्रहः' ॥२७६॥ हैम अनेकार्थसंग्रह के चतुर्थ काण्ड में'परिग्रहः परिजने पन्याम्' ॥३५३॥ कालिदास के रघुवंश में.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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