________________
२२
पर प्रहार पड़ने के परिणामस्वरूप] उसे इस दुःख में से मुक्त किया जा सकता हैं, अथवा कम से कम उसकी दुःखमात्रा को तो शक्ति-अनुसार अवश्य कम किया जा सकता है । यह स्पष्ट पुण्यकर्म है, पवित्र धर्माचरण है।
मानवधर्म के इस पवित्र तत्त्व को ख़याल में रखकर उस पर यथाशक्ति अमल करने में ही धर्म है, धर्म का आराधन है, वैयक्तिक तथा सामुदायिक कल्याण है। सचमुच ही
नहीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु विद्यते । दया मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक् ॥
[महाभारत, आदिपर्व, अ. ८७. १२] -ऐसा वशीकरण तीनों जगत् में दूसरा कोई नहीं है : प्राणियों पर दया, मैत्री, दान और मधुर वाणी ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org