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जैनदर्शन
नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्कवादे न च तत्त्ववादे । न पक्षसेवाऽऽश्रयणेन मुक्तिः कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥
-उपदेशतरंङ्गिणी में से उद्धृत. देशना (ज्ञानोपदेश अथवा धर्मोपदेश) कैसी देनी चाहिए इसके बारे में श्री हरिभद्रसूरि कहते हैं कि
चित्रा तु देशना तेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय, १३२. अर्थात्-इन (कपिल, बुद्ध आदि) महात्माओं की देशना (ज्ञानोपदेश अथवा धर्मोपदेश) भिन्न-भिन्न श्रेणी के शिष्यों की योग्यता के अनुसार भिन्नभिन्न प्रकार की होती है, क्योंकि वे भवरोग के महान् वैद्य हैं ।
इसका तात्पर्य यह है कि श्रोताजनों के अधिकार के अनुसार, वे पचा सकें या आचार में रख सकें, वैसी देशना भिन्न-भिन्न मनुष्यों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, क्योंकि आध्यात्मिक उन्नति एकदम प्राप्त नहीं होती । वह तो क्रमिक ही होती है अर्थात् एक के बाद दूसरे सोपान पर चढ़कर आगे बढ़ा जा सकता है । छलांग लगाने पर तो पैर टूट जाने का भय रहता है और बहुतों के पैर टूटे भी हैं । जिस प्रकार एक कुशल वैद्य अपने बीमारों के भिन्न-भिन्न रोगों की परीक्षा करके उस रोग के अनुसार अलग-अलग दवाई देता है और भिन्न-भिन्न अनुमानों का तथा पथ्यापथ्य के बारे में सूचन करता है उसी प्रकार भव-रोग के महान् वैद्य भी अपने श्रोताओं की परीक्षा करके उनकी योग्यता और अधिकार के अनुसार उनके लिये उचित भिन्न-भिन्न प्रकार की देशना देते हैं ।
इस श्लोक पर की स्वोपज्ञ टीका में हरिभद्राचार्य कहते हैं कि 'सर्वज्ञ कपिल, सुगत (बुद्ध) आदि की जो भिन्न-भिन्न प्रकार की देशना है वह भिन्नभिन्न प्रकार के शिष्यों अथवा श्रोताओं को लक्ष में रख कर दी गई है, क्योंकि ये (कपिल, सुगत आदि) सर्वज्ञ महात्मा भवरोग के महान् वैद्य हैं ।
यही कारण है कि इन महात्माओं के बीच जो दार्शनिक तत्त्वभेद
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