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________________ षष्ठ खण्ड ४१३ पद्धति अथवा क्रियाकाण्ड की ओर आदरभाव रखता है । यह बात नीचे के श्लोक पर से स्पष्ट होती है— जितेन्द्रिया जितक्रोधा दान्तात्मानः शुभाशयाः । परमात्मगतिं यान्ति विभिन्नैरपि वर्त्मभिः ॥ यशोविजयजी, परमात्मपच्चीसी. अर्थात् — जितेन्द्रिय, क्रोधादिकषायरहित, शान्तमना, शुभ आशयवाले सज्जन भिन्न-भिन्न मार्गों से भी परमात्मदशा पर पहुँच सकते हैं । इस परम आदर्श का अनुयायी, फिर वह चाहे किसी भी सम्प्रदाय का क्यों न हो, किसी भी नाम से पहचाना क्यो न जाता हो, तो भी यदि उसका आत्मा समभाव से भावित है तो वह अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है । इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है । इस बात को नीचे का श्लोक भी उपस्थित करता है सेयंबरो य आसंबरो बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभाविअप्पा लहइ मुक्खं न सन्देहो ॥२॥ - संबोहसत्तारि अर्थात् — श्वेताम्बर, दिगम्बर, बौद्ध अथवा अन्य कोई भी व्यक्ति यदि समभाव से भावित हो तो वह अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करता है । कोई भी मनुष्य चाहे जिस नाम से पहचाना जाय इसमें कोई हर्ज नहीं है, परन्तु यदि वह ऐसा मान बैठे कि दिगम्बरत्व में (नग्न रहने में) ही मुक्ति है अथवा श्वेताम्बरत्व में (श्वेत वस्त्र धारण करने में अथवा वस्त्र धारण में) ही मुक्ति है, अथवा तत्त्ववाद या तर्क वाद में मुक्ति है, अथवा अपने पक्ष की सेवा करने में (साम्प्रदायिक चौकापन्थी में) मुक्ति है, तो इस प्रकार की मान्यता भ्रामक और मिथ्या है । कषाय ( राग-द्वेष - मोह) से मुक्ति ही सच्ची (आध्यात्मिक) मुक्ति है । इस प्रकार उपदेश नीचे के श्लोक से मिलता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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