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जैनदर्शन
मोक्ष में से वापिस लौटना माना जाय तो फिर मोक्ष का महत्त्व ही लुप्त हो जायगा । जहाँ से पुनः पतन का प्रसंग उपस्थित हो उसे मोक्ष ही नहीं कह सकते । अतएव प्रस्तुत प्रश्न का समाधान करते समय यह ध्यान में रखना आवश्यक प्रतीत होता है कि संसार जीवों से शून्य नहीं होता और मोक्ष में से जीव वापिस लौटते भी नहीं-इन दो सिद्धान्तों को किसी प्रकार की क्षति न पहुँचने पाए । शास्त्र कहते हैं कि जितने जीव मोक्ष में जाते हैं उतने जीव संसार में से अवश्य कम होते जाते हैं; फिर भी जीवराशि अनन्त होने के कारण संसार जीवों से शून्य हो ही नहीं सकता । संसारवर्ती जीवराशि में नए जीवों का समावेश सर्वथा न होने पर भी और संसार में से जीवों की निरन्तर कमी होती रहने पर किसी भी समय जीवों का अन्त न आए इतने अनन्त जीव समझने चाहिए । इस प्रकार की 'अनन्त' शब्द की व्याख्या शास्त्र करते हैं । सूक्ष्म में सूक्ष्म (अविभाज्य) काल को जैन शास्त्रों में 'समय' कहते हैं । समय इतना सूक्ष्म काल है कि एक सेकन्ड में वे कितने बीत जाते हैं यह हम जान ही नहीं सकते । ऐसे समग्र भूत-भविष्य काल के समय अनन्तानन्त हैं, इसी प्रकार संसारवर्ती जीव भी अनन्तानन्त हैं जिनकी किसी भी काल में समाप्ति होने की संभावना ही नहीं हैं। [प्रस्तुत दृष्टान्त से जीवों की अनन्तता की कुछ कल्पना आ सकती है ।] जीव के विभाग :
सामान्यतः जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त । संसार में भ्रमण करनेवाले जीव संसारी कहलाते हैं । संसार शब्द 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'सृ' धातु से बना है । 'सृ' धातु का अर्थ गमन, भ्रमण होता है। 'सम्' उपसर्ग उसी अर्थ को पुष्ट करने वाला है। अतः 'संसार' शब्द का अर्थ हुआ भ्रमण । ८४ लाख जीवयोनियों में अथवा चार गतियों में परिभ्रमण करने का नाम संसार है और परिभ्रमण करने वाला जीव संसारी कहलाता है। दूसरी तरह से संसार शब्द का अर्थ ८४ लाख जीवयोनि अथवा चार गति भी हो सकता है । शरीर का नाम भी संसार है । इस प्रकार वे आबद्ध जीव संसारी कहे जाते हैं ।
१. देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति और नरकगति ।
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