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प्रथम खण्ड
पूर्ण होने पर झड़ते जाते हैं । शुभ अथवा अशुभ क्रिया द्वारा बाँधनेवाले शुभ अथवा अशुभ कर्म परलोक तक, अरे ! अनेकानेक जन्मों तक फल दिए बिना ही आत्मा के साथ संयुक्त रहते हैं और फल-विपाक के उदय के समय अच्छे या बूरे फलों का अनुभव आत्मा को कराते हैं । फल-विपाक के उपभोग की जब तक अवधि होती है तब तक आत्मा उस फल का अनुभव करती है और अनुभव हो जाने के पश्चात् वह कर्म आत्मा पर से झड़ जाता है। इस पर से यही फलित होता है कि वर्तमान जीवन और परलोक की गति इस 'कर्म' के बल पर अवलम्बित है।
उपर्युक्त युक्ति-प्रमाणों के द्वारा तथा 'मैं सुखी हूँ,' 'मैं दुःखी हूँ' ऐसी शरीरिक नहीं, इन्द्रियजन्य नहीं, किन्तु हृदय के अन्तस्तम प्रदेश में अर्थात् अन्तरात्मा में सुस्पष्ट अनुभूतिजन्य संवेदना, जो कि प्रत्यक्ष प्रमाणरूप है, उसके द्वारा भी शरीर एवं इन्द्रियों से भिन्न स्वतंत्र आत्मतत्त्व सिद्ध होता है। संसार में जीव अनन्त है :
____ यहाँ पर एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि इस संसार में विद्यमान जीवराशि में से कर्म क्षय करके जीव मुक्ति में गए हैं, जाते हैं और जाएँगे, इस प्रकार प्रतिक्षण संसार में से जीव कम होते जा रहे हैं, इसी स्थिति में भविष्य में कोई समय ऐसा क्यों नहीं आ सकता जब यह संसार जीवों से रिक्त हो जाय ?
इस प्रश्न के समाधान का विचार करने से पूर्व एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि संसार जीवों से रहित हो जाय यह किसी भी शास्त्र को मान्य नहीं है। हमारी विचारदृष्टि में भी यह बात नहीं आती । दूसरी ओर मुक्ति में से जीव संसार में वापिस लौटे यह बात भी मानी जा सके वैसी नहीं है; क्योंकि यह तो सब कोई मानते हैं कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर ही मोक्ष मिलता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जिसके कारण संसार में जन्म लेना पड़ता है वह कर्म-सम्बन्ध किसी भी रूप में जब मुक्त जीवों के साथ नहीं होता तो फिर वे संसार में वापिस कैसे आ सकते हैं ? यदि
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