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जैनदर्शन
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आत्मा में कृष्ण, श्वेत, पीत आदि कोई वर्ण नहीं है, अतः वह दूसरी वस्तुओं की भाँति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होती । प्रत्यक्ष न होने के कारण वह कुछ है ही नहीं, ऐसा नहीं माना जा सकता । परमाणु भी चर्मचक्षु से नहीं दिखते, फिर भी अनुमान प्रमाण से उनका अस्तित्व माना जाता है । स्थूल कार्य की निष्पत्ति के लिये सूक्ष्म — परम सूक्ष्म अणुओं के अस्तित्व की सिद्धि अनुमान प्रमाण पर ही अवलम्बित है । परमाणु मूर्त रूपी होने पर भी यदि प्रत्यक्ष - गम्य नहीं हैं तो फिर अमूर्त अरूपी आत्मा कैसे प्रत्यक्ष दिख सकती है ? ऐसा होने पर भी यह एक समझने की बात है कि संसार में कोई सुखी तो कोई दुःखी, कोई विद्वान् तो कोई मूर्ख, कोई सेठ तो कोई नौकर—इस प्रकार की अनन्त विचित्रताएँ दृष्टिगोचर होती हैं यह तो प्रत्येक व्यक्ति समझ सकता है कि बिना कारण ये विलक्षणताएँ सम्भव नहीं हो सकतीं । शतशः प्रयत्न करने पर बुद्धिशाली मनुष्य को इष्ट वस्तु प्राप्त नहीं होती, जब कि दूसरे मनुष्य को बिना प्रयत्न के ही अभीष्ट लाभ मिल जाता है । ऐसी अनेकानेक घटनाएँ हमारी दृष्टि के सामने ही होती हैं। एक ही स्त्री की कुक्षि से साथ ही उत्पन्न युगल में से दोनों प्राणी एकजैसे नहीं होते । उनकी जीवनचर्या एक दूसरे की अपेक्षा अत्यन्त भिन्न होती है । तो प्रश्न यह होता है कि इन सब विचित्रताओं का कारण क्या है ? ऐसा नहीं हो सकता कि ये सब घटनाएँ अनियमित हों । इनका कोई न कोई नियामक - प्रयोजक होना चाहिए । इस पर से तत्त्वज्ञ महात्माओं ने कर्म का अस्तित्व सिद्ध किया है; और कर्म के अस्तित्व के आधार पर आत्मा स्वतः सिद्ध होती हैं, क्योंकि आत्मा को सुख - दुःख देने वाला कर्मपुञ्ज आत्मा के साथ अनादिकाल से संयुक्त है और इसीके कारण आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है । कर्म एवं आत्मा की सिद्धि हो जाने पर परलोक की सिद्धि के लिये कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता । जैसा शुभ अथवा अशुभ कार्य जीव करता है वैसा ही परलोक (पुनर्जन्म) उसे मिलता है । जिस प्रकार की शुभ अथवा अशुभ क्रिया की जाती है उसी प्रकार की 'वासना' आत्मा में स्थापित हो जाती है । यह वासना विभिन्न प्रकार के परमाणुसमूहों का एक समुच्चय ही है । इसीको दूसरे शब्द में 'कर्म' कहते हैं । इस प्रकार के नये नये कर्म आत्मा के साथ बँधते रहते हैं और पुराने कर्म अपना समय
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