SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड भी पहले अर्थात् आँख के अस्तित्वकाल में देखे हुए पदार्थों का स्मरण होता है । किन्तु इन्द्रियों को आत्मा मानने पर यह सम्भव नहीं हो सकता । इन्द्रियों से आत्मा को पृथक् मानने पर ही यह घट सकता है, क्योंकि आँख से देखी हुई वस्तु का स्मरण आँख के अभाव में न तो आँख से हो सकता है और न ही दूसरी इन्द्रियों से । दूसरी इन्द्रियों से स्मरण न होने में कारण यह है कि जिस प्रकार एक मनुष्य के द्वारा देखी हुई वस्तु का स्मरण दूसरा नहीं कर सकता उसी प्रकार आँख से देखे हुए पदार्थ का स्मरण दूसरी इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता । एक का अनुभव दूसरे को स्मरण करने में कारणभूत नहीं हो सकता-यह समझी जा सके वैसी सुगम बात है। इससे यही फलित होता है कि आँख से देखी हुई वस्तुओं का, आँख के नष्ट होने पर भी, स्मरण करने वाली जो शक्ति है वह चैतन्यस्वरप आत्मा ही है । आत्मा ने चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा जिन वस्तुओं को पहले देखा था उन्हीं वस्तुओं का चक्षुरिन्द्रिय के अभाव में भी पूर्व अनुभव से उत्पन्न संस्कार के उद्बोधन के द्वारा वह स्मरण कर सकती है । इस प्रकार अनुभव एवं स्मरण के (जो अनुभव करता है वही स्मरण करता है-इस प्रकार के) घनिष्ठ सम्बन्ध से भी स्वतंत्र चैतन्यत्वरूप आत्मा सिद्ध होती है । 'अमुक वस्तु देखने के पश्चात् मैंने उसका स्पर्श किया, तदनन्तर मैंने वह सूंघी, फिर चखी'-ऐसा अनुभव मनुष्य को हुआ करता है । इस अनुभव के ऊपर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस वस्तु को देखनेवाला, छूनेवाला, सूंघनेवाला और चखनेवाला भिन्न नहीं, किन्तु एक ही है । परन्तु वह एक कौन है ? वह आँख नहीं हो सकती, क्योंकि उसका कार्य केवल देखने का ही है, छूने आदि का नहीं । वह स्पर्शन-इन्द्रिय (त्वचा) भी नहीं हो सकती, क्योंकि उसका कार्य सिर्फ छूने का ही है, देखने आदि का नहीं । इसी प्रकार वह नाक अथवा जीभ भी नहीं हो सकती, क्योंकि नाक का कार्य केवल सूंघने का और जीभ का कार्य केवल चखने का ही है । इससे यह नि:शंक सिद्ध होता है कि वस्तु को देखनेवाला, छूनेवाला, सूंघनेवाला और चखनेवाला जो एक है वह इन्द्रियों से भिन्न आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy