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जैनदर्शन
अनुभूति आदि गुण मृतक के शरीर में नहीं होतें । इस से सिद्ध होता है कि इन गुणों का उपादान शरीर नहीं, किन्तु कोई दूसरा ही तत्त्व हैं और उसी का नाम आत्मा है । शरीर पृथ्वी आदि भूतसमूह का बना हुआ होने के कारण भौतिक है अर्थात् वह जड़ है; और जिस प्रकार भौतिक घट, पट आदि जड़ पदार्थों में ज्ञान, इच्छा आदि धर्मों का अस्तित्व नहीं हैं उसी प्रकार जड़ शरीर भी ज्ञान, इच्छा आदि गुणों का उपादानरूप आधार नहीं हो
सकता ।
शरीर में पाँच इन्द्रियाँ हैं, परन्तु इन इन्द्रियों को साधन बनाने वाली आत्मा इन इन्द्रियों से भिन्न है; क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा आत्मा रूप, रस आदि जानता है । वह चक्षु से रूप देखता है, जीभ से रस ग्रहण करता है, नाक से गन्ध लेता है, कान से शब्द सुनता है, त्वचा (चमड़ी) से स्पर्श करता है । उदाहरणार्थ, जिस प्रकार चाकू से कलम बनाई जाती है, परन्तु चाकू और बनाने वाला दोनों भिन्न हैं; हँसिये से घास आदि काटा जाता है परन्तु हँसिया और काटने वाला दोनों भिन्न हैं; दीपक से देखा जाता है परन्तु दीपक और देखने वाला दोनों जुदा-जुदा हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों से रूप, रस आदि विषय ग्रहण किए जाते हैं, परन्तु इन्द्रियग्राम और विषयों को ग्रहण करने वाला दोनों भिन्न ही हैं । साधक को साधन की अपेक्षा होती है, परन्तु इससे साधक और साधन ये दोनों एक नहीं हो सकते । इन्द्रियाँ आत्मा को ज्ञान प्राप्त कराने में साधनभूत हैं । अतः साधनभूत इन्द्रियाँ और उनके द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाली आत्मा दोनों एक नहीं हो सकती । मृत शरीर में इन्द्रियों का अस्तित्व होने पर भी मृतक को उनसे किसी प्रकार का ज्ञान नहीं होता — इसका क्या कारण है ? इस पर से यही प्रतीत होता है कि इन्द्रियाँ और उनसे ज्ञान प्राप्त करने वाली आत्मा दोनों पृथक् ही हैं । इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इन्द्रियों को यदि आत्मा माना जाय तो एक शरीर में पाँच आत्मा माननी पड़ेगी और यह अघटित ही हैं ।
दूसरी दृष्टि से देखें तो जिस मनुष्य की आँख नष्ट हो गई है उसे
१. पृथ्वी, जल, तेज और वायु ।
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