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प्रथम खण्ड
वैदिक परम्परा के धर्मशास्त्रों में जिस प्रकार काल के कृतयुग आदि चार विभाग किए गए हैं उसी प्रकार जैन शास्त्रों में काल के विभागरूप से छह आरों का उल्लेख है । तीर्थंकर तीसरे-चौथे आरे में होते हैं । जो तीर्थंकर अथवा केवलज्ञानी आयुष्य पूर्ण होने पर मुक्त हो जाते हैं वे पुनः संसार में नहीं आतें । इस पर से यह समझना है कि जो जो जीव इस विश्व में तीर्थङ्कर होते हैं वे किसी परमात्मा के अवताररूप नहीं होते, किन्तु सब तीर्थङ्कर पृथक्-पृथक् आत्मा हैं । मुक्त होने के पश्चात् संसार में पुनः अवतार लेने की बात जैन सिद्धान्त को मान्य नहीं है ।।
जैन शास्त्रों का प्रतिपाद्य विषय नौ तत्त्व है-यह ऊपर कहा गया हैं । ये नौ तत्त्व हैं—१. जीव, २. अजीव, ३. पुण्य, ४. पाप, ५. आस्रव, ६. संवर, ७. बन्ध, ८. निर्जरा और ९. मोक्ष । जीव :
जिस प्रकार दूसरे पदार्थ प्रत्यक्ष दिखते हैं उस प्रकार जीव प्रत्यक्ष नहीं दिखता, परन्तु वह स्वानुभव-प्रमाण से जाना जा सकता है । 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुःखी हूँ' ऐसा संवेदन शरीर को नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो पृथ्वी आदि पञ्चभूतों का बना हुआ है । यदि शरीर को आत्मा माना जाय तो मृत शरीर में भी ज्ञान का प्रकाश क्यों न माना जाय ? मृत शरीर को भी सजीव शरीर क्यों न कहा जाय ? परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि इच्छा,
१. जैन शास्त्रों में उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के नाम से काल के दो मुख्य विभाग किए गये हैं । इन उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी में जिनकी संख्या ही गिनी न जा सके उतने-असंख्येय वर्ष व्यतीत हो जाते हैं । उत्सर्पिणी काल में रूप, रस, गन्ध, शरीर, आयुष्य, बल आदि वैभव क्रमशः बढ़ते जाते हैं, जब कि अवसर्पिणी काल में वे सब घटते जाते हैं । प्रत्येक उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के छह विभाग किये गये हैं। इनमें से प्रत्येक विभाग को आरा (संस्कृत शब्द 'अर') कहा जाता है । उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी की काल-चक्र के एक पहिए के रूप में कल्पना करें तो इनके बारह विभागों को 'आरा' कह सकते हैं । एक के छह आरे पूर्ण होने पर दूसरे के आरों का आरम्भ होता है । इस समय भारतवर्ष आदि क्षेत्रों में अवसर्पिणी का पाँचवाँ आरा चल रहा है । इसे 'कलियुग' भी कह सकते हैं ।
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