SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ जैनदर्शन धर्म 'जैन-धर्म' कहलाता है । जैन धर्म का आर्हत-धर्म, अनेकान्तदर्शन, निर्ग्रन्थशासन, वीतरागमार्ग आदि अनेक नामों से व्यवहार होता है । तीर्थङ्कर : जिस जन्म में आत्मस्वरूप को विकसित करने का अभ्यास पराकाष्ठा पर पहुँचता है और सभी आवरण विध्वस्त हो जाने के कारण जिनका चैतन्यविकास पूर्ण रूप से सिद्ध हुआ है वे उस भव में परमात्मा कहे जाते हैं । जैन शास्त्रों में ऐसे परमात्माओं के दो विभाग किए गए हैं। पहले विभाग में तीर्थङ्कर आते हैं । वे जन्म से ही विशिष्ट ज्ञानवान् और लोकोत्तरसौभाग्यसम्पन्न होते हैं । तीर्थंकरों के बारे में अनेक विशेषताओं का उल्लेख मिलता है । राज्य नहीं मिलने पर भी भविष्य में जिसे राज्य मिलने वाला है, वैसे राजकुमार को राजा कहा जाता है उसी प्रकार तीर्थंकर भी बाल्यावस्था से ही केवलज्ञानधारी नहीं होते और इसीलिये उस वक्त उनमें वास्तविक तीर्थंकरत्व नहीं होता, फिर भी उसी जीवन में वे तीर्थंकर पद प्राप्त करते हैं, इसलिये वे 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं । वे जब गृहवास का त्याग करके चारित्रमार्ग अंगीकार करते हैं और योगसाधना की पूर्णता पर पहुँचने पर सम्पूर्ण 'घाती' कर्मावरणों का क्षय हो जाने के कारण जब उनमें केवलज्ञान प्रगट होता है तब वे 'तीर्थ' की स्थापना करते हैं । 'तीर्थ' शब्द का अर्थ साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ है । तीर्थंकर के उपदेश के आधार पर उनके साक्षात् मुख्य शिष्य, जो 'गणधर' कहे जाते हैं, शास्त्रों की रचना करते हैं । वे शास्त्र बारह विभागों में विभक्त होते हैं। उन्हीं को 'द्वादशाङ्गी' कहते हैं । द्वादशांगी का अर्थ है बारह अंगों का समूह । 'अंग' इन बारह विभागों-सूत्रों में से प्रत्येक के लिये प्रयुक्त होने वाला एक पारिभाषिक नाम है । 'तीर्थ' शब्द से यह द्वादशांगी भी ली जाती है । इस प्रकार तीर्थ की स्थापना करने वाले एवं उक्त चतुर्विध संघ के स्थापक तथा द्वादशांगी के प्रयोजक होने से वे तीर्थंकर कहलाते हैं । 1 इस तरह की विशेषताओं से रहित केवलज्ञानधारी वीतराग परमात्मा, तीर्थंकरों के विभाग से अलग पड़ते हैं । अतः वे सामान्यकेवली कहे जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy