________________
उपक्रम :
जगत् क्या है ?, इसका स्वरूप कैसा है ?, यह किन तत्त्वों का बना है ? – इन प्रश्नों पर विचार करने पर यह जगत् केवल दो ही तत्त्वजड़ एवं चैतन्यरूप प्रतीत होता है । इन दो तत्त्वों के अतिरिक्त विश्व में तीसरा कोई तत्त्व नहीं है । समग्र विश्व के सारे पदार्थ इन दो तत्त्वों में ही समाविष्ट हो जाते हैं । सामान्यतः इन दो मूलभूत पदार्थों के लिये 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग होता है ।
प्रथम खण्ड
जिसमें चैतन्य नहीं है— अनुभूति नहीं है वह जड़ है । इससे विपरीत चैतन्यस्वरूप-संवेदनशील आत्मा है । आत्मा, जीव, चेतन ये सब एक ही अर्थ के द्योतक पर्यायवाची शब्द हैं । आत्मा का मुख्य लक्षण ज्ञानशक्ति है जैन शास्त्रकारों ने चेतन एवं जड़ अथवा जीव एवं अजीव इन दो तत्त्वों पर आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष प्रकाश डालने के लिये इन्हीं के अवान्तर भेदरूप में अन्य तत्त्वों को अलग करके समझाया है और उनका विशद प्रतिपादन किया है । सामान्यतः नौ तत्त्वों पर जैन दर्शन का विकास हुआ है ।
जिन और जैन
:
'जिन' शब्द पर से 'जैन' शब्द निष्पन्न हुआ है । राग- ग-द्वेषादि सम्पूर्ण दोषों से रहित परमात्मा का सर्वसाधारण नाम 'जिन' है। 'जीतना' अर्थवाले 'जि' धातु से बना हुआ 'जिन' नाम राग-द्वेषादि समग्र दोषों को जीतने वाले परमात्माओं को यथार्थ रूप से लागू होता हैं । अर्हन्, वीतराग, परमेष्ठी आदि 'जिन' के पर्यायवाची शब्द हैं । 'जिन' के भक्त जैन और जिनप्रतिपादित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org