________________
प्रथम खण्ड
११
अजीव :
चैतन्यरहित-जड़ पदार्थों को अजीव कहते हैं । जैन शास्त्रों में अजीव के पाँच भेद किए गए हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल ।
यहाँ पर धर्म और अधर्म ये दो तत्त्व पुण्य और पापरूप समझने के नहीं हैं, किन्तु इन नामों के ये दो भिन्न ही पदार्थ हैं । ये पदार्थ (द्रव्य) आकाश की भाँति सम्पूर्ण लोक में व्यापक हैं, और अरूपी हैं । इन दो पदार्थों का उल्लेख किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है । जैन शास्त्रों में ही इनका प्रतिपादन है । जिस प्रकार अवकाश देखने के कारण आकाश का अस्तित्व सब विद्वान् मानते हैं उसी प्रकार ये दो पदार्थ भी जैन शास्त्रों में सहेतुक माने गये है। धर्म (द्रव्य) :
गमन करनेवाले प्रणियों को तथा गति करनेवाली जड़ वस्तुओं को उनकी गति में सहायता करनेवाला 'धर्म' पदार्थ है । पानी में तैरने में मछलियाँ को जिस प्रकार सहायता करनेवाला पानी है उसी प्रकार जड़ पदार्थों की तथा जीवों की गति में सहायकरूप से 'धर्म' नामक पदार्थ माना गया है । जिस प्रकार अवकाश प्राप्त करने में आकाश सहायक माना जाता है उसी प्रकार गति में सहायकरूप से 'धर्म' तत्त्व माना जाता है । अधर्म (द्रव्य) :
. जिस प्रकार श्रान्त पथिक को विश्राम लेने में वृक्ष की छाया निमित्तभूत होती है उसी प्रकार 'अधर्म' पदार्थ का उपयोग स्थिति करनेवाले जीवों एवं जड़ पदार्थों को उनकी स्थिति में सहायक होना है । गति करने में सहायक जिस प्रकार से 'धर्म' तत्त्व मानना पडता है उसी प्रकार स्थिति में सहायक 'अधर्म' तत्त्व भी मानना पड़ता है ।
हलन-चलन तथा स्थिति में स्वतंत्र कर्ता स्वयं जीव एवं अजीव पदार्थ ही हैं, अपने ही व्यापार से वे हलन-चलन करते हैं अथवा स्थिर होते हैं, परन्तु इसमें सहायक रूप से किसी शक्ति की अपेक्षा होनी चाहिए ऐसा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org