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________________ जैनदर्शन (३) कल्याणसाधक सत्य धर्म है और ऊपर कहा उस तरह कल्याणबाधक सत्य धर्म नहीं है । ( अस्ति-नास्ति) ३४८ (४) परिस्थिति का विचार किए बिना सत्यवचन धर्म है या नहीं यह कहा नहीं जा सकता । (अवक्तव्य) (५) सत्य वचन धर्म है, परन्तु सदा और सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । ( अस्ति- अवक्तव्य) (६) सत्यवचन धर्म नहीं है (ऊपर जो टिप्पण लिखा है उसके अनुसार), फिर भी सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टि से कोई एक बात नहीं कही जा सकती । (नास्ति- अवक्तव्य) (७) सत्यवचन धर्म तो है ही, परन्तु ऐसे भी अवसर आते हैं जबकि सत्यवचन धर्म नहीं होता; ऐसा होने पर भी सदा सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । ( अस्ति नास्ति - अवक्तव्य) इस तरह यदि आचरणशास्त्र के नियम सप्तभंगी के रूप में विश्व के सम्मुख उपस्थित किए जाएँ तो सब सम्प्रदायों को एक-दूसरे के समीप आने में कितनी सहायता मिल सकती है । कौन-सा नियम किस परिस्थिति में अस्तिरूप और किस परिस्थिति में नास्तिरूप इसका पता लग जाने से हम वर्तमान परिस्थिति के अनुरूप नियमों का चुनाव कर सकते हैं । यह बात वैयक्तिक जीवन और सामाजिक दृष्टि से कितनी हितकर है ! अवश्य, विवेकदृष्टि के बिना सप्तभंगी की आयोजना अशक्य है और यदि हो तो उसमें कुछ भी सार नहीं होगा, प्रत्युत वह आयोजना विषमिश्रित जैसी भयंकर हो जायगी । घटत्व-पटत्वादि में तो सप्तभंगी का उपयोग बहुत हुआ है, परन्तु ऊपर के विवेचन से देखा जा सकता है कि सप्तभंगी के मूल में जीवन को अमृतमय बनाने का उद्देश होना चाहिए । वह यदि आचारव्यापी हो तभी 'जीवित अनेकान्त' कहा जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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