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पंचम खण्ड
३४७
(५) हिंसा पाप है, परन्तु सदा और सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । (अस्ति-अवक्तव्य)
(६) ऊपर कहा उस तरह अपवादिकप्रसंगरूप हिंसा पाप नहीं है, परन्तु सदा और सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । (नास्ति-अवक्तव्य)
(७) हिंसा पाप है, परन्तु ऐसे भी प्रसंग उपस्थित होते हैं जबकि हिंसा पाप नहीं समझी जाती। ऐसा होने पर भी सदा और सर्वत्र के लिये कोई एक बात नहीं कही जा सकती । (अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य)
सत्य के बारे में देखें(१) सत्य धर्म है । (अस्ति)
(२) सत्य धर्म नहीं है, क्योंकि पशु के पीछे पड़े हुए पशुघातक शिकारी के आगे अथवा युवति के पीछे पड़े हुए गुण्डे के आगे यदि सच्ची बात कह दी जाय तो ऐसा सत्य बोलना पाप है । (नास्ति)
१. इस बारे में १७९वें पृष्ठ के टिप्पण में 'आचारांग' सूत्र का पाठ दिया है। महाभारत के कर्णपर्व के ७२वें अध्याय में ३३वाँ श्लोक है ।
भवेत् सत्यमवक्तव्यं वक्तव्यमनृतं भवेत् ॥
यत्राऽनृतं भवेत् सत्यं सत्यं चाऽप्यनृतं भवेत् ॥ अर्थात्-कभी कभी सत्य बोलने जैसा नहीं होता और झूठ बोलने योग्य होता है । इस तरह झूठ सत्य बनता है और सत्य झूठ बनता है । इस श्लोक के अनुसंधान में 'कौशिक' तापस की कथा दी गई है। उसके सच सच कह देने पर मनुष्यों की क्रूर हत्या हुई थी और तथाकथित उस सत्य के परिणामस्वरूप उसे नरक में जाना पड़ा था । हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र के द्वितीय प्रकाश के --
न सत्यमपि भाषेत परपीडाकरं वचः ।
लोकेऽपि श्रूयते यस्मात् कौशिको नरकं गतः ॥ इस ६१वें श्लोक में सत्य भी परपीडाकर हो तो न बोलना चाहिए इस विधान की पुष्टि में उसी महाभारत के 'कोशिक' तापस का उदाहरण देते हैं ।
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