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________________ ३४६ जैनदर्शन बातें बतलाते हैं और इसीलिये इनमें एक-दूसरे से कुछ न कुछ विशेषता है । धार्मिक अथवा आचारसम्बन्धी प्रश्नो के बारे में भी सप्तभंगी का उपयोग किया जा सकता है जैसे कि (१) हिंसा पाप है [यदि प्रमत्तभाव से की ही तो] । (अस्ति) (२) हिंसा पाप नहीं है। मनुष्यों के ऊपर-निरपराध जनता के ऊपर भयंकर कूरतापूर्ण व्यवहार करनेवाले आततायी नराधम का वध यदि करना पड़े तो वह कर्तव्यरूप हिंसा होने से पाप नहीं है। (नास्ति) (३) बिना कारण निरपराधी की संकल्पिक हिंसा पाप है, परन्तु यत्नाचारपूर्वक की जानेवाली सप्रयोजन प्रवृत्ति में होनेवाली हिंसा (द्रव्यहिंसा) पापरूप नहीं है । नीतिभंग-रूप-अन्याय्य हिंसा पाप है, परन्तु कर्तव्यरूप हो तो पाप नहीं है ! (अस्ति-नास्ति) (४) परिस्थिति का विचार किये बिना यह निश्चित् नहीं कहा जा सकता कि हिंसा पाप है या नहीं । (अवक्तव्य) १. शास्त्रों में ग्लान, बीमार, अशक्त, साधु आदि की परिचर्या के निमित्त तथा उस उस प्रकार के देश-काल को लक्ष में रख कर अत्यन्त आपवादिक रूप से, छहों काय के जीवों की जिसमें हिंसा हो वैसी वैद्यकीय चिकित्सा आदि के बारे में विधान है। मुनि के लिये नदी को पार करने जैसी जीवविराधनारूप अनेक बातों की आज्ञा है । श्री हरिभद्राचार्य 'दशवैकालिक' सूत्र के पहले अध्ययन की ४५वी नियुक्ति-गाथा की टीका में निम्न गाथाएँ उद्धृत करते हैं : उच्चालिअम्मि पाए इरिआसमिअस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥ न य तस्स तणिमित्तो बंधो सहमो वि देसिओ समये । जम्ह सो अपमत्तो सा य पमाओ ति निहिट्ठा ॥ अर्थात्-~-अप्रमत्तभावपूर्वक चलनेवाले से यदि किसी द्वीन्द्रियादि जीव को हिंसा हो जाय तो उससे सूक्ष्म भी कर्मबन्ध नहीं होता ऐसा शास्त्र में कहा है; क्योंकि वह अप्रमत्त है और प्रभादभाव को ही हिंसा कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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