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________________ जैनदर्शन दुनिया में शास्त्रों के प्रवाह कितनी भिन्न-भिन्न विचारधाराओं में बन रहे हैं । इन शास्त्रों के प्रणेता ऋषियों की भूमिका समान नहीं थी । उन सबकी आन्तरिक निर्मलता तथा समताभाव एकसरीखे नहीं थे । शास्त्रविद्या के महारथी महापुरुष आचार्यों के बीच कितकितने और कैसे-कैसे मतभेद देखें जाते हैं ? और अपने मन्तव्य के बारे में समतुला न रहने पर मताग्रह के अतिरेक के प्रदर्शन में आवेशवश भी दिखाई देते हैं । ऋषि-मुनियों और . आचार्यों के परस्पर खण्डन - मण्डन से भरे हुए शास्त्र कहाँ कम है ? 1 २४४ कहने का अभिप्राय यह है कि शास्त्रमोह से शास्त्र का पूजक न बनकर अपने प्रज्ञारूप प्रदीप को साथ में रखकर के शास्त्रविहार करना चाहिए । इसी में उसका क्षेम है । प्रत्येक समझदार व्यक्ति के लिये शास्त्रजल अथवा उपदेश जल अपने स्वच्छ बुद्धिरूप वस्त्र से छानकर लेने में ही कुशलता है, इसी में उसकी बुद्धिमत्ता है । शास्त्ररूपी समुद्ध में से मोती तो 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ' । इस तरह शास्त्रों से काम लेने का है, परन्तु डूब मरने के लिये किसी एक शास्त्र को कुआँ बनाने की आवश्यकता नही है । आर्ष, पारमर्ष शास्त्रों में ज्ञानसम्पत्ति तथा पवित्र विचारसम्पत्ति बहुत भरी हुई है, किन्तु वे लम्बे भूतकाल के अनेक झंझावातों में से गुजर चुकें हैं यह बात भी शास्त्रों के अवलोकन के समय अपनी सहज एवं तटस्थ बुद्धि या प्रज्ञा के उपयोग को साथ रखने की आवश्यकता सूचित करती है । कोरे 'बाबा वाक्यं प्रमाणम्' से नहीं चल सकता । आजकल के प्रतिभाशाली प्राज्ञों के विचार यदि शास्त्र - परम्परा से विरुद्ध प्रतीत होते हों तो भी उनसे भडक कर उन विचारों को समतापूर्वक समझने का प्रयत्न करना चाहिए और यदि ठीक जँचे तो बतौर एक सत्यशोधक, उन विचारों को अपनी विचारनीधि में समाविष्ट कर लेना चाहिए। किसी के भी विचार जितने अंश में युक्त- उपयुक्त मालुम पड़ते हों उतने अंश में मूल्याङ्कन करना चाहिए । सत्यपूजा अथवा ज्ञानपूजा का यह प्रशस्त लक्षण है । सत्य के लिये शास्त्र है, न कि शास्त्र के लिये सत्य । जो सत्य है, जो विचारपूत अथवा बुद्धिपूत है, जो युक्तिसिद्ध और उपर्युक्त है उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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