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तृतीय खण्ड
२४३
उन्मादक रोग नष्ट-भ्रष्ट होकर अहिंसा, सत्य, आवश्यक परिमित परिग्रह, समदृष्टि तथा प्राणिवात्सल्य के सर्वोदयसाधक सद्गुणों के आलोक से यह लोक आलोकित होकर स्वर्ग का भी स्वर्ग बन सकता है ।
शास्त्रों में विशुद्धतत्त्व श्रद्धानरूप अथवा सम्यगदृष्टिरूप सम्यक्त्व की पहचान के लिये पाँच लक्षण बतलाए हैं
शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यलक्षणैः ।
लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ - हेमचन्द्र, योगशास्त्र,
२-१५
अर्थात् - शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये सम्यक्त्व की पहचान के पाँच लक्षण है ।
१. शम-क्रोध, लोभ आदि कषायदोषों को पतला करना तथा कामलालसा को अंकुश में [ समुचित संयम में] रखना ।
२. संवेग - आत्मकल्याण साधने की उत्कट आकांक्षा ।
३. निर्वेद - पापाचरण, अनाचार, अपकृत्यों की ओर घृणाभाव । ४. अनुकम्पा - करूणा - दयावृत्ति |
आस्तिक्य-सदाचरण में कल्याण है और दुराचरण में दुर्गति है ऐसी पक्की और सुदृढ़ श्रद्धा ।
(२२) शास्त्र -
हमें यह समझ लेने की आवश्यकता है कि शास्त्र की उत्पत्ति अनुभव में से होती है, परन्तु शास्त्र से सीधा अनुभव नहीं मिलता । शास्त्रोपदेश के योग्य परिशीलन के पश्चात् भी मुमुक्षु जब अन्तर्योग की साधना का मार्ग ग्रहण करता है तब उसके विकास में से, शास्त्रों में से न मिल सके ऐसा अनुभव उसे प्राप्त होता है । इस प्रकार के उज्ज्वल अनुभव में से लोकप्रकाशरूप पवित्र शास्त्रों का सर्जन होता है । इस तरह अनुभव का स्थान बहुत ऊँचा है, शास्त्रग्रन्थ की भूमिका से भी उसका स्थान अत्युन्नत है ।
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