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________________ २४२ सच्चारित्र है ।] श्री हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश के १०९ वें श्लोक की वृत्ति में 'श्रद्धा धर्माभिलाष:' इन शब्दों से श्रद्धा का अर्थ धर्म की अभिलाषा बतलाते हैं । धर्म अर्थात् कर्तव्यमार्ग, और इस मार्ग पर चलने की अभिलाषा ही धर्माभिलाषा है । इस अर्थ से यही सूचित होता है कि श्रद्धा अथवा सम्यक्त्व किसी एक सम्प्रदाय के चौके में ही सीमित हो ऐसा नहीं है । जैनदर्शन हमें यह समझना चाहिए कि धर्म का फल केवल पारलौकिक ही नहीं हैं । अनात्मवादी अथवा परलोक में अश्रद्धालु या सन्दिग्ध किन्तु समझदार मनुष्य धर्म अर्थात् न्याय-नीति के सन्मार्ग पर उत्साहपूर्वक चलता है, क्योंकि वह समझता है कि 'मानव समाज यदि न्यायसम्पन्न सौजन्य - भूमि पर विचरण करने लगे तो उसका ऐतिहासिक जीवन काफी स्वस्थ बन सकता है और यदि मरणोत्तर परलोक होगा तो वह भी ऐहिक जीवन के स्वच्छ एवं सुन्दर प्रवाह के कारण अच्छा और सुखाढ्य ही मिलने का ।' निःसन्देह, धर्म को ऐहिक - प्रत्यक्षफलदायक समझना यथार्थ ही नहीं, अपितु आवश्यक भी है । यदि मनुष्य यहाँ पर देव (दैविक गुणाढ्य ) बने तभी मर कर वह देव हो सकता है । यहाँ पर पशु जैसा जीवन जीने से ही मरणोत्तर पशुजीवन की (तिर्यंच) गति में और यहाँ पर घोरदुष्टतारूप नारकीय जीवन जीने के कारण ही मरणोत्तर नारकीय गति में जीव जाता है । इसी प्रकार इस देह में मानवता के योग्य सद्गुणों का विकास करनेवाला मरकर पुनः मानव जन्म लेता है । इस सबका फलितार्थ यही है कि अनीति-अन्याय-असंयमरूप दुश्चरित्र की हेयता में तथा नीति - न्याय - संयमरूप सच्चरित्र की उपादेयता में विशुद्ध समझ, विशुद्ध विश्वास होने का नाम ही सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व अथवा तत्त्वार्थ श्रद्धान है । इसके विस्तृत प्रचार के प्रभाव से मानव समाज में फैली हुई विलासलम्पटता, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, सत्ताअधिकारवाद, गुरुडमवाद के भयंकर झंझावात के अतिविषम आक्रमण पर संवर्धित अनीति अन्यायअत्याचार व शोषण की भयानक बदी और ऊँचनीचभाव के समाजशोषक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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