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________________ तृतीय खण्ड २४५ शास्त्र पलट नहीं सकता, और यदि उसे पलट देने का प्रयत्न करे तो वह स्वयं ही औंध जाय । खतरे में पड़ जाय । जो बुद्धि से अगम्य हो, जो बुद्धि की पहुँच से बाहर हो उसके सामने विरोध करने की शक्यता ही कहाँ है ? उसके बारे में सूझ न पड़े तो भी चुप्पी साधनी पड़ती है । परन्तु यदि कोई तत्त्व बुद्धिविरुद्ध हो अथवा लोकहित के विरुद्ध हो तो उसका, शास्त्र में उल्लेख होने मात्र से, स्वीकार नहीं किया जा सकता । 'बृहस्पतिस्मृति' में कहा है कि केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यों विनिर्णयः । युक्तिहीनविचारे तु धर्महानिः प्रजायते ॥ अर्थात् — केवल शास्त्र के आधार पर निर्णय नहीं करना चाहिए, क्योंकि युक्तिविरुद्ध विचार के अनुसरण से धर्म की हानि होती है । शास्त्रपरीक्षा के लिये कहा है यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षण - च्छेदन-ताप-ताडनैः । तथैव शास्त्रं विदुषा परीक्ष्यते श्रुतेन शीलन तपो दयागुणैः ॥ अर्थात् — जिस प्रकार सोने की परीक्षा घर्षण, छेदन, तापन और ताड़न इस प्रकार चार तरह से होती हैं उसी प्रकार शास्त्र की परीक्षा श्रुत, शील, तप और दया (अहिंसा) इन चार गुणों से होती है । (१) जिसमें प्रत्यक्ष तथा बुद्धि से अविरुद्ध ( अबाधित ) ऐसा श्रेयोमूलक श्रुत (तत्त्वज्ञान) हो, (२) जिसमें सदाचार को मुख्य प्रतिष्ठा दी गई हो, (३) जिसमें जीवन के ऊर्ध्वकरण में सहायभूत तप का विधान किया गया हो और (४) जिसमें अहिंसादया का कर्तव्यरूप से विवेकपूर्ण निरूपण किया गया हो वह शास्त्र (आदरणीय शास्त्र ) है । ऐसे शास्त्र द्वारा प्रतिपादित स्वाध्याय - शील-तपअहिंसा का सन्मार्ग ही धर्म है वही कल्याणमार्ग है । यहाँ पर प्रसंगोपात्त यह सूचित करना आवश्यक है— प्रतीत होता है कि कुलाचार के तौर पर भी यदि अच्छा आचरण अथवा अच्छा कार्य होता हो तो वह प्रशंसनीय है, परन्तु समझ के साथ जो सत्कर्म होता है उसका मजा कुछ और ही होता है । कुलाचार से जो जैन, बौद्ध अथवा वैष्णव है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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