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तृतीय खण्ड
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राग द्वेष, स्वार्थ और मूढ़ता आदि मैल से जितना दूर होता जाता है उतना ही वह निर्मल बनने लगता है । इस निर्मलता के कारण वह (राग) निर्मल वात्सल्य अथवा निर्मल प्रेमभाव जैसे सु-नाम से व्यवहृत होता है । विधेयात्मक अहिंसारूप शुद्ध वात्सल्यभाव प्राणीवर्ग में जितना व्यापक बनता है, आत्मा उतनी ही महान् बनती है । 'सम्यक्त्व' के निर्मल पुद्गल विशीर्ण होने पर जिस प्रकार श्रेष्ठतम (आत्मिक ) सम्यक्त्व प्रकट होता है उसी प्रकार अत्युन्नत भूमिका पर आरूढ होने पर राग के निर्मल पुद्गल भी जब बिखर जाते हैं तब पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त होती है और तब परमविशुद्ध आत्मिक वात्सल्य (Divine or spiritual love), जो कि अहिंसा की परम ज्योति है, सर्वभूतव्यापी बनता है और इसका सद्व्यवहार वीतराग प्रभु जबतक इस जगत में (शरीरधारी अवस्था में) रहते हैं तब तक करते हैं । इसलिये वे लोकबन्धु, जगन्मित्र, विश्ववत्सल कहलाते हैं । इसी रूप में उनकी स्तुति-प्रार्थना की जाती है ।
(११) ईश्वरकृपा
स्वास्थ्य अच्छा रहे, बुद्धि अच्छी रहे, विचार - व्यवहार अच्छे रहे, सुखशान्ति बनी रहे तो यह सब ईश्वर की कृपा से है ऐसा लोगों में बोला जाता है । जैन भी बोलते हैं । और यह कुछ अनुचित भी नहीं है । इस प्रकार के सुष्ठु वाणी - व्यवहार में अत्यन्त मृदुता रही हुई है । स्मृतिपूर्वक बोले जानेवाले ऐसे वचनों से हम अहङ्काररहित हो सकते हैं । इससे ईश्वर की तरफ हमारी न्रमता तथा भक्तिभाव पुष्ट होते हैं । और उसके चरणों में बैठ जाने जितना प्रेम उमडने लगता है ।
दूसरी ओर तार्किक बुद्धिवाद से देखने पर प्रतीत होता है कि कल्याणमय ईश्वर ऐसा वीतराग और समत्वधारक है, ऐसा निरंजन और निर्लेप है कि किसी का बुरा भला करने के प्रपंच में वह पड़ता ही नहीं है । प्रत्येक प्राणी का बुरा-भला उसके अपने कर्मों से होता है । और प्रत्येक व्यक्ति को अपना भला अपने ही प्रयत्नों से करने का है । ईश्वर की 'कृपा' तो, सब जीव अच्छे और सुखी रहे सद्बुद्धि, सद्विचारवान् और सद्व्यवहारवाले बनें और रहें, ऐसी निरन्तर होती है । सब पर उसकी कृपा ही होती है यह सिद्ध
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