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________________ १७२ जैनदर्शन बात है । अतः यदि केवल उसकी कृपा के ही कारण सुखशान्ति मिलती हो और सदाचारी बन जाता हो तो उसकी कृपा सब पर एक समान होने से सबके सब एक ही साथ सदाचारी और सुखी बन जाने चाहिए । परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । अतः हमें समझना चाहिए कि इस की सर्वव्यापी, सर्वसाधारण स्वभावभूत कृपा अथवा प्रसन्नता सब पर समान होने पर भी प्राणियों के सुख-दुःख, उन्नति-अवनति अथवा कल्याण-अकल्याण का आधार अपने कर्म-आचरण पर ही है । हमारा पतन करानेवाला हमारा दुराचरण ही है और हमारा सदाचरण ही हमारा तारक है । अतः सदाचारी बनने के लिये ईश्वर कृपा की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है । उसकी कृपा तो है ही-नित्य-निरन्तर ही उसके कृपारूपी अमृत की वृष्टि हो रही है । यदि हम सदाचारी बनें तो सुखी हुए ही हैं । सदाचरण की साधना के समय पूर्वकृत दुष्कृत के कारण, संभव है, दुःख, तकलीफ सहनी पड़े; परन्तु इस सनातन सन्मार्ग में यदि हम निश्चल रहें तो उत्तरोत्तर विकसित होते-होते अन्ततः पूर्ण उज्ज्वल बनकर सब दुःखों से विमुक्त हो सकते हैं और पूर्ण शान्ति प्राप्त कर सकते हैं । दुनिया में दुष्ट, अधम मनुष्य दुष्ट, अधम कार्य करते हैं इसका क्या कारण है ? क्या यह कारण है कि उन पर ईश्वर की कृपा नहीं है ? नहीं, उसकी तो सब पर, ऊपर कहा उस तरह, सब अच्छे और सुखी बनें ऐसी कृपा है ही । ऐसा होने पर भी जगत् कितना कलुषित प्रतीत होता है ? अच्छों की अपेक्षा बुरे, सुखी की अपेक्षा दुःखी और बुद्धिशाली की अपेक्षा ज्ञानहीन प्राणियों की संख्या विश्व में बहुत अधिक हैं । सच तो यह है कि दुनिया की बातों में उसकी (उस अलख निरंजन ईश्वर की) कृपा अथवा अकृपा जैसा कुछ भी नहीं है । वह तो स्वमग्न है, निर्लेप और तटस्थ है । उसकी ओर का अपना भक्तिभाव और उस भक्तिभाव द्वारा सच्चरितता की साधन—इसी को यदि हम उसकी कृपा समझ लें तो तार्किक बुद्धि भी विरोध न कर सके ऐसा जीवनहित का सम्पूर्ण मुद्दा इसमें आ जाता है । ___ जो कुछ अच्छा होता है वह पुण्य से और जो बुरा होता है वह पाप से-ऐसा आर्य संस्कृति के तत्त्वज्ञान का प्रचलित सिद्धान्त है, अतः यह बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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