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तृतीय खण्ड
१७३
सही है कि सुख-सुविधा मिले, अथवा कुछ अच्छा हो अथवा अनिष्ट अकस्मात की झडप में से अपना इष्ट जन अथवा स्वयं हम बच जाएँ तो यह पुण्योदय से और असुविधा अथवा संकट उपस्थित हो अथवा खराब दुःखजनक परिस्थिति में फँस जाना पड़े तो वह पाप के उदय से होता है, परन्तु प्रश्न होगा कि यह पुण्य और पाप आए कहाँ से ? इसके उत्तर में यही कहना पड़ेगा कि सत्कृत्य करने से अथवा अमुक अंश में शुभ मार्ग पर चलने से पुण्य आया और अशुभ कार्य अथवा पापाचार से पाप आया । ठीक, तब यह प्रश्न होता है कि शुभाशुभ मार्ग की सनातन समझ मूल में जगत पर कहाँ से उतरती रही ? इसका उत्तर यह है कि यह समझ मूल में महान् ज्ञानी पुरुषों से उतरती आई है । तब इस पर से ऐसा माना जा सकता है कि ज्ञानी प्रभु की शिक्षा के अनुसार चलने से पुण्य उपार्जित होता है और उस पुण्य द्वारा जो सुख प्राप्त होता है उस सुख के देनेवाले मूल कारणरूप ज्ञानी भगवान् समझे जा सकते हैं । इसी प्रकार ज्ञानी भगवान् की कल्याणमयी हितशिक्षा को न मान कर दुष्कर्म के मार्ग पर चलने से पाप का बन्ध होता है और इसके परिणामस्वरूप जो दुःखी होना पड़ता है यह भी ज्ञानी भगवान की शिक्षा न मानने का परिणाम कहा जा सकता है। दुनिया के व्यवहार में हम देखते ही हैं कि जिससे जिसके परामर्श से लाभ अथवा सुख मिलता है वह उसे अपना उपकारी मानता है- मुझे वह लाभ अथवा सुख देनेवाले वह है ऐसा वह मनुष्य मानता है । इसी प्रकार ज्ञानी भगवान् के उपदेश के अनुसार चलनेवाला मनुष्य सुख प्राप्त करता है इसलिये उस सुख के कारणभूत ज्ञानी भगवान् उपकारी माने जा सकते हैं, क्योंकि उनके सदुपदेश के अनुसार चलने से ही उसे सुख मिला है । इसी दृष्टि से परमात्मा ईश्वर सुखदायक अथवा मुक्तिदायक समझा जाता है । इतना ही नहीं, ईश्वर के कर्तृत्व का वाद भी इस दृष्टि के अनुसार और इतने अंश में घटाया जा सकता है ।
इस पर से, किसी आपत्ति में बच जाने पर अथवा इष्ट-लाभ प्राप्त होने पर भगवान् का जो उपकार माना जाता है अथवा उसकी कृपा को जो अंजलि दी जाती है वह युक्त है ।
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