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(१२) 'अनशन' व्रत लिए हुए व्यक्ति के बारे में
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जनों में तथा अन्य सम्प्रदायों में 'अनशन' तप में कोई-कोई पानी पीने का भी त्याग करते हैं । कभी-कभी ऐसे त्याग वाले को पानी की खूब प्यास लगती है जिससे वह बहुत ही बेचैन हो जाता है । उस समय उसे उसके व्रत की याद दिलाने पर भी पानी पीने की उस की तीव्र इच्छा बनी ही रहती है । ऐसे अवसर पर जब वह आतुरतापूर्वक पानी माँग रहा हो तब, उस 'व्रती' को दुर्ध्यान न हो जाय और उसकी मौत न बिगड़े इसलिये उसे पानी पिला कर तृप्त करना ही धर्म हो जाता है। उसे पानी न देना और प्यासा रख कर तड़पते रहने देना अक्षम्य और भयंकर अपराध है — भीषण मानवहत्या है । जैन धर्म द्रव्य-क्षेत्र - काल - भाव (अर्थात् परिस्थिति) का विचार कर के काम करने का आदेश करता है ।
जैनदर्शन
इस बारे में यदि कोई प्रश्न करे कि उस का क्या ? इसका उत्तर तो यही है कि इसका विचार व्रतधारी को स्वयं करने का है । हमें उसके बारे में आज्ञा करने का अथवा जबरदस्ती से व्रत का पालन कराने का अधिकार नहीं है । हम तो केवल उसे उसके व्रत का स्मरण करा सकते हैं । बाद में किस प्रकार बरतना इसके लिये वह स्वतन्त्र है । यह ध्यान में रखना चाहिए कि पानी देनेवाला व्रती को नहीं परन्तु व्रत से गिरे हुए और पानी के लिये करुण प्रयत्न करनेवाले तथा पानी न मिलने से व्रत भंग की अपेक्षा भी अधिक पापरूप दुर्ध्यान में पड़े हुए व्यक्ति को उसके माँगने से पानी देना है अतः पानी देने वाले व्रती के व्रतभंग के दोष के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है । इसके विपरीत; उसे पानी पिलाना अनुकम्पारूप धर्म होने से उस धर्म का आचरण करनेवाला वस्तुतः पुण्य कार्य ही करता है । इससे, 'पानी - पानी' चिल्लानेवाला, पानी के बिना मछली की भाँति तडफड़ाने वाला वह पानी मिलने से दुर्ध्यान एवं संक्लेशों से बच जाता है और इस तरह उस समय उसकी बिगड़ती मौत रुक जाती है । पानी देने पर व्रतभंग की आपत्ति मानने का कोई भी कारण नहीं है, परन्तु बहुत बड़ी और भयानक आपत्ति तो उसे पानी न देने में है, क्योंकि उस दशा में वह करुण (आर्त्त और दारुण) ( रौद्र) दुर्ध्यान से ग्रस्त होता है । उस समय उसकी
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