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तृतीय खण्ड
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माँग के अनुसार पानी अथवा भोजन देने से उसे शान्ति मिलती है । संभव है, उस शान्ति में से वह पुनः धर्मजागृति प्राप्त करे ।
'अनशन' ही नहीं, उपवासादि व्रत पालने का उत्तर दायित्व भी समाधिभाव (शान्ति) रहे वहीं तक है । शान्ति अथवा मनोभाव नष्ट होने के बाद उस व्रत का बन्धन नहीं रहता । इसीलिये तो उपवासादि के पच्चक्खाणों में (प्रतिज्ञा सूत्र में ) 'सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं' पाठ रखा हुआ है ।
(१३) व्यापक हितभावना
मनुष्य सामाजिक प्राणी है; समुदाय में एक-दूसरे के साहचर्य और सहयोग पर रहनेवाला, जीनेवाला प्राणी है । एक व्यक्ति के जीवन और संवर्धन के पीछे असंख्य प्राणियों का प्रवृत्ति, परिश्रम, कष्टसहन और बलिदान रहे हुए हैं । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति पर प्राणीसमाज का ऋण चढ़ा हुआ है । अतः उसे केवल अपने ही हित की दृष्टि से नहीं, किन्तु सब के हित की दृष्टि से अपने ध्येय का विचार करना चाहिये । उसकी कार्य-प्रवृत्ति किसी के लिये अहितकर न हो इसका ख्याल उसे सदैव रखना चाहिए । उसका मानस लोकबन्धुता के विशद भाव से रँगा हुआ होना चाहिए । 'मैं तो समाज से भिन्न और अलग ही व्यक्ति हूँ' — इस प्रकार मानकर बरतना यह समाज के ऋण का इनकार कर के दिवाला निकालने जैसा है । अपने आपको समाज का एक अंश या घटक मान कर तथा समाजहित के विरुद्ध अकेले मेरा हित होना असम्भव है ऐसा समझ कर उसे अपने हृदय में समाजहित की भावना का प्रवाह बहता रखना चाहिए ।
धर्म और जीवन को अलग नहीं कर सकते । धर्म जीवन में, दूसरों के साथ व्यवहार में ओतप्रोत बन जाना चाहिए । यदि धर्म को जीवन एवं व्यावहारिक बरताव से अलग कर दिया जाय तो वह धर्म न रह कर व्यर्थ बन जायगा । ‘निश्चयदृष्टि' (मूल आदर्श) पर लक्ष रख कर तदनुकूल अथवा कम से कम उसके विरुद्ध नहीं ऐसा सद्-व्यवहार रखने में ही धर्म का पालन है । जहाँ व्यवहार में नीति और न्याय की उपेक्षा की जाय वहाँ धर्म नहीं होता । लोकबन्धुभाव अहिंसा की ज्योतरूप होने से धर्म का प्राण है । इससे
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