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जीवन आलोकित हो इसी में जीवन का श्रेष्ठतम सौन्दर्य है ।
(१४) सरल मार्ग——-
जगत् अनेक दुःखों से आक्रान्त है । दुःख अपनी भूल का परिणाम है । मनुष्य धर्म का अर्थात् कर्त्तव्यमार्ग का पालन न करने की भूल करता है । और इसीलिए वह दु:खी होता है । शास्त्रकारों ने यमनियम आदि बतलाकर मनुष्य को उसका कर्त्तव्यमार्ग बता दिया है । इस पर चलने से उसका कल्याण होता है । लोभवृत्ति और उपाधि कम कर के समुचित संयम के द्वारा जीवन को सुखशान्तिपूर्ण बनाना ही व्रतों का उद्देश है । मानवसमाज परस्पर हिल-मिलकर सुख-शान्ति से रहे और जीवनविकास की ओर गतिशील हो यही धर्ममार्ग का प्रयोजन है । सत्य, अहिंसा, संयम, सन्तोष, मैत्री, सेवा इन सद्गुणों की साधना ही मनुष्य मात्र का धर्ममार्ग है ।
जैनदर्शन
यह समझा जा सकता है कि जिस समय जो ग्राह्य वस्तु मिले उसका प्रसन्नतापूर्वक उपभोग करके सन्तोष मानना इसमें कुछ बेजा नहीं है, परन्तु वह वस्तु अच्छी लगने से बार-बार मिले ऐसी इच्छा होना और उसके अभाव में अथवा वियोग में मन में बेचैनी रहना अथवा अस्वस्थता का अनुभव करना आसक्ति अथवा तृष्णा है । इसके परिणामस्वरूप जीवन अस्वस्थ बन जाता है । इस आसक्ति के वश में न होने का जो धैर्य वह है अनासक्ति मार्ग । सामान्यतः मनुष्य अपने आरोग्य और अपनी चित्तशुद्धि को हानि न पहुँचे उस तरह और स्वादेन्द्रिय के वश हुए बिना न्यायसम्पन्न योग रसास्वाद कर सकता है और निर्दोष एवं न्याय्य भौतिक आनन्द ले सकता है । इस प्रकार की दृष्टिवाला सज्जन स्वादेन्द्रिय का दास नहीं होगा और जीवनविकास के अपने मध्यम मार्ग पर सरलता से मृदु प्रगति करता जायगा । (१५) आत्मा के स्वरूप का शास्त्रीय विवेचन
जीव का लक्षणचेतना है । चेतना अर्थात् ज्ञानशक्ति । ऐसी शक्ति जीव के अतिरिक्त अन्य किसी रूपी अथवा अरूपी द्रव्य में नहीं है । चेतनस्वरूप-ज्ञानस्वरूप जीव अपनी चेतनाशक्ति द्वारा जानता है, वस्तु का ज्ञान कर सकता । जीव इतर पदार्थों का ज्ञान कर सकता है, इतना ही नहीं,
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