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________________ तृतीय खण्ड १७७ वह अपने आप का भी ज्ञान कर सकता है । इसीलिये वह स्वपरप्रकाशक कहलाता है । सब प्रकार का (यथार्थ अथवा अयथार्थ) ज्ञान स्वप्रकाशक' (स्वसंवेदन रूप अथवा स्वसंविदित) है अर्थात् वह स्वयं अपने आपको प्रकाशित करता है । परन्तु यथार्थज्ञान स्वप्रकाशक और अर्थप्रकाशक इस प्रकार दोनों स्वरूपवाला होने से स्वपरप्रकाशक (स्वपरव्यवसायी) समझा जाता है। प्रदीप की भाँति ज्ञान भी स्वयं प्रकाशरूप होकर ही अर्थ को प्रकाशित करता है । जो ज्ञान अयथार्थ (सन्दिग्ध अथवा भ्रान्त) है वह परप्रकाशक नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट ही है । विश्व में जितने पदार्थ हैं वे सब सामान्य तथा विशेष स्वभाववाले हैं । जब चेतना पदार्थ के विशेष स्वभाव की ओर लक्ष न करके मुख्यतः पदार्थ के सामान्य स्वभाव को लक्ष्य बनाती है तब चेतना के उस समय के परिणाम को 'दर्शन कहते हैं । और जब चेतना पदार्थ के सामान्य स्वभाव की ओर लक्ष न करके मुख्यरूप से पदार्थ के विशेष स्वभाव को लक्ष्य बनाती है तब चेतना के उस समय के परिणमन को 'ज्ञान' कहते हैं । चेतना का, योग्य निमित्त के योग से जानने की क्रिया में परिणमन होने का नाम 'उपयोग' है । इस पर से ज्ञात होगा कि उपयोग दो विभागों में विभक्त है : सामान्य उपयोग और विशेष उपयोग । जो बोधग्राह्य वस्तु को सामान्यरूप से १. "स्वनिर्णयस्तु अप्रमाणेऽपि संशयादौ वर्तते । न हि काचित् ज्ञानमात्रा सास्ति या न स्वसंविदिता नाम ।" –हेमचन्द्राचार्य की प्रमाणमीमांसा के तीसरे सूत्र की वृत्ति । २. "ज्ञानं प्रकाशमानमेव अर्थं प्रकाशयति, प्रकाशकत्वात, प्रदीपवत् ।" -उक्त तृतीय सूत्र पर की अवतरणिका में । अर्थात्-जिस प्रकार प्रदीप को अपने प्रकाशन के लिये दूसरी वस्तु की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि वह स्वयं प्रकाशरूप है, और ऐसा होने से ही वह अर्थ को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी स्वप्रकाशक होकर ही परप्रकाश करता है । जो स्वयंप्रकाशरूप न हो वह परप्रकाशक नहीं हो सकता (अर्थप्रकाश नहीं कर सकता) । अतः घट आदि पदार्थ का ज्ञान अर्थप्रकाश करता है इसलिये स्वप्रकाश भी है । इस तरह ज्ञान को स्वसंविदित (स्वप्रकाशरूप) सिद्ध किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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