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जैनदर्शन
स्वजन-कुटुम्ब, सगे-सम्बन्धी तथा मित्रादि की तरफ जो रागभाव होता है वह लौकिक-राग है । इस लौकिक-राग के भी दो भेद किए जा सकते हैं : स्नेहरूप और स्मरवासनारूप । स्नेहरूप राग यदि कलुषित न हो और निर्मल हो तो वह आदरणीय है । स्मरवासनारूप राग भी निषिद्ध और अनिषिद्ध ऐसा दो प्रकार का गिनाया जा सकता है : स्वपत्नी अथवा स्वपति-विषयक औचित्ययुक्त अनिषिद्ध, और परस्त्री आदि निषिद्धस्थान-विषयक निषिद्ध ।
हमें यह जान लेना चाहिए कि व्यक्तिविषयक राग की अपेक्षा उसके गुणों का राग उत्तम है, फिर चाहे ऐसे व्यक्ति की ओर राग-बुद्धि उसके सद्गुणों के कारण ही क्यों न उत्पन्न हुई हो ? यह बात सच है कि ऐसे व्यक्ति की ओर होनेवाला रागभाव आत्मा के ऊर्वीकरण में बहुत अंशों में सहायभूत होता है, परन्तु ऐसा राग उस व्यक्ति का वियोग होने पर निराधारता की भावना पैदा करके रुदन कराता है और अन्तिम विकास का अवरोधक बनता है । इस बारे में महर्षि गौतम इन्द्रभूति का उदाहरण स्पष्ट है ।।
वीतरागता अर्थात् राग और द्वेष का आत्यन्तिक अभाव । इसमें रागद्वेषजन्य सभी वृत्तियों का अभाव सूचित हो जाता है । वीतरागता विश्वबन्धुत्व, विश्वप्रेम अथवा विश्ववात्सल्य की विरोधी नहीं है । जितने अंशों में राग-द्वेष कम होते जाते हैं उतने अंशों में प्राणीवात्सल्य का विकास होता जाता है और जब वीतरागता पूर्णरूप से प्रकट होती है तब यह वात्सल्यभाव भी पूर्णरूप से विकसित हो कर समग्र लोक के प्राणियों में अभिव्याप्त हो जाता है । जहाँ निर्धान्त ज्ञान देदीप्यमान हो रहा हो, जहाँ संकुचित स्वार्थ और पौद्गलिक सुखोपभोग में आसक्ति न हो, जहाँ कषायादि दोष न हो, जहाँ शुभ कर्मों से प्राप्त विशेषताओं के कारण गर्व अथवा अहंकार न हो, जहाँ पक्षपात अथवा अन्यायवृत्ति न हो, जहाँ उच्च नीच भाव न हो और जहाँ पूर्ण समदर्शिता तथा सर्वप्राणीहितपरायणता हो वहाँ वीतरागता है । वह विश्वक्षेमंकर, पूर्णपवित्र पूर्णज्योति जीवन का नाम है ।।
जिस राग के पक्ष में द्वेष, स्वार्थ, पक्षपात आदि दोष हों अथवा जो राग साक्षात् या परम्परा से द्वेषादि दोषों के साथ सम्बद्ध हो वह कलुषित राग है । जगत् इस कलुषित राग के जुल्मी आक्रमण से व्यथित है । परन्तु यह
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