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________________ तृतीय खण्ड १६९ ही है । प्रत्येक दोष के मूल में राग का बल काम करता है । राग जड़ एवं चेतन दोनो प्रकार के पदार्थों के बारे में होता है । जैसे मनुष्यादि चेतन प्राणियों पर वैसे घड़ी, फाउण्टेन पेन, स्टेशनरी, फर्नीचर, वस्त्र - आभूषण आदि अच्छी लगने वाली चीजों पर भी राग-भाव फैला हुआ है, जबकि द्वेष तो सामान्यतः सचेतन प्राणी के बारे में ही होता है । 'जड़ वस्तु उसका विषय नहीं है । खम्भे के साथ टकराने पर यदि लग जाय तो खम्भे की ओर द्वेष - जैसा विकार उत्पन्न होता है, परन्तु वास्तविक रूप में वह द्वेष नहीं है, वह तो मोह का ( अज्ञान का, बेवकूफी का) पागल आवेश मात्र है । राग मोह का प्रबलतम रूप है और समग्र संसारचक्र में उसका निर्द्वन्द्व साम्राज्य फैला हुवा है । सब दोष उसके साथ चिपके हुए हैं और उसके हटते ही सब दोष तितर-बितर हो जाते हैं। इसीलिये वीतराग शब्द में केवल एक 'राग' शब्द ही रख कर राग के अभाव की सूचना के बल पर ही दूसरे सभी दोषों का अभाव भी सूचित हो जाता है । सचेतनप्राणी विषयक राग धार्मिक, साम्प्रदायिक और लौकिक इस तरह तीन प्रकार का है। ज्ञानी, महात्मा, सन्त, सत्पुरुष, सद्गुरु के ऊपर कल्याणी भक्ति का राग तथा सद्गुणों के कारण उत्पन्न होनेवाला पवित्र धार्मिक राग है । यह भक्तिरूप होने से कल्याण - रूप है । महर्षि गौतम इन्द्रभूति का भगवान् महावीर पर ऐसा ही धार्मिक अनुराग था । अपने सम्प्रदाय पर का संकुचित राग साम्प्रदायिकराग' है और यह त्याज्य है । १. इस बारे में हरिभद्राचार्य के 'अष्टकप्रकरण' ग्रन्थ के प्रथम अष्टक के प्रथम श्लोक के तृतीय पाद 'न च द्वेषोऽपि सत्त्वेषु' पर श्री जिनेश्वरसूरिकृत टीका देखो । २. कामरागस्नेहरागावीषत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि ॥ - हेमचन्द्र, वीतरागस्तोत्र । अर्थात् — कामराग और स्नेहराग का निवारण सुकर है, परन्तु अतिपापी दृष्टिराग का उच्छेदन तो पण्डित और साधु-सन्तों के लिये भी दुष्कर है । [दृष्टिराग अर्थात् संकुचित साम्प्रदायिक राग ] इस श्लोक में कामराग, स्नेहराग और दृष्टिराग ये तीन राग बतलाए हैं । पवित्र भक्तिरूप या धार्मिक राग का स्त्रेहराग के सुपवित्र विभाग में समावेश हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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