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जैनदर्शन सर्वप्रथम कल्पना में सिद्ध करने की होती है । इसी प्रकार प्रारम्भ करना इष्ट है और सुरक्षा भी इसमें है । तालीम ले रहा हो उस हालत में अर्थात् साधक दशा में सिद्धि का अभिमान करनेवाला व्यक्ति अपने अध:पतन को आमन्त्रित करता है । अविचारी साहस करने में खतरा है, और प्रलोभनों से दूर रह कर प्राप्त की हुई सिद्धि भ्रामक न हो यह भी देखने का है । विद्वान् हों फिर भी प्रलोभन के सम्मुख अचल-भाव से टिक रहने में सच्ची कसौटी है । इसलिये समय-समय पर अपनी मोह-वासना का संशोधन और निरीक्षण एकदम बारीकी के साथ करते रहना जरूरी है ।
बाह्य परिस्थिति की ओर मनुष्य को असावधान न रहना चाहिए । क्या कोई जान-बुझकर रोग के कीटाणुओं का भक्षण करता है अथवा उनके पास जाता है ? परन्तु बाह्य परिस्थिति पर मनुष्य का अधिकार बहुत कम होता है और किस समय मनुष्य कहाँ जाकर पड़ेगा इसकी खबर किसी को नहीं होती । अतः प्रलोभनों से बचने के लिये मनुष्य को प्रतिक्षण सतर्क, जाग्रत और शक्तिशाली बने रहने की आवश्यकता है। हमेशा अपने मन को स्वच्छ, वासना अथवा मालिन्य से रहित और धैर्यपूर्ण रखना यही पतन से वचने का सच्चा मार्ग है । ऐसा होने पर ही प्रलोभक अथवा संक्षोभक परिस्थिति के समय मन पतित अथवा पराजित न होकर स्थिर एवं तेजस्वी रह सकेगा ।
__ अच्छे अच्छे मनुष्यों के मन प्रलोभक अथवा संक्षोभक परिस्थिति उपस्थित होने पर विचलित हो जाते हैं । ऐसे समय सुज्ञ मनुष्य को अपने मन के साथ युद्ध करना पड़ता है । इस में-ऐसे आन्तर विग्रह में महामना महानुभाव मानव खिल उठता है, खिलता जाता है कि किसी भी लालच के सामने वह अविचल खडा रहकर विजेता के आनन्द का संवेदन कर सकता है। (१०) राग और वीतरागता
संसारवर्ती जीव के लिये अतिनिबिड बन्धन यदि कोई हो तो वह वस्तुतः रागद्वेष का है । इनमें भी राग मुख्य है । द्वेष के मूल में भी राग
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