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जैनदर्शन
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आधारभूमि बनता है । इस तरह का ज्ञान सम्यग्दर्शन ही है अथवा इस तरह का ज्ञान ही सम्यग्दर्शन है ।
दर्शन - ज्ञान - चरित्र इन तीन की (तीन के सहयोग की ) भाँति ही 'नाणकिरियाहि मोक्खो" आदि प्राचीन आर्षउल्लेखों से ज्ञान और क्रिया (क्रिया अर्थात् चारित्र) इन दो के सहयोग को भी मोक्ष का मार्ग बतलाया है । वहाँ पर दर्शन [श्रद्धान] का समावेश ज्ञान में किया है । " ज्ञानविशेष एवं सम्यक्त्वम्" [ज्ञानविशेष का ही नाम सम्यक्त्व है ] ऐसा पूर्व कालीन श्रुतधर ऋषियों का कथन है ।
श्रद्धा के बारे में तनिक अधिक स्पष्टीकरण करें ।
आत्मस्पर्शी तत्त्वश्रद्धा की वास्तविक श्रद्धा [ कल्याणी श्रद्धा ] समझने की है । जिन तत्त्वों पर की श्रद्धा आत्मजीवन में प्रेरणादायी आन्दोलन जगाए, दृष्टि में विकासगामी परिवर्तन करे वही मंगलरूप तत्त्वश्रद्धा है । इस तत्त्व श्रद्धा के विषयभूत तत्त्व हैं: आत्मा, पुण्यपाप, पुर्नजन्म, मोक्ष और मोक्ष का मार्ग । इन तत्त्वों की श्रद्धा - सच्ची समझ के साथ श्रद्धा दृढ़ विश्वास रूप श्रद्धा ही आध्यात्मिक जीवन में उपयोगी श्रद्धा है और इसी को सम्यग्दृष्टि, सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व के लिये स्वर्ग-नरक के वैदिक, बौद्ध अथवा जैन वाङ्गमय में किये हुए वैविध्यपूर्ण पौराणिक वस्तुवर्णनों में आस्था होना अनिवार्य नहीं है । जिस मनुष्य को आत्मा में, आत्मा की सुगति दुर्गति में और आत्मा के पूर्ण विकास की शक्यता में श्रद्धा है वह सम्यक्त्वशाली है । ऐसी श्रद्धा जीवन के लिये अमृततुल्य होने से अमृतश्रद्धा है । वह जीवन के लिये जीवन-यात्रा के लिये बड़े से बड़ा आलम्बन है ।
सम्यक्त्व श्रद्धा में षडद्रव्यों पर की शर्त भी अनिवार्य नहीं है । जिसे 'धर्मास्तिकाय' आदि द्रव्यों की जानकारी नहीं है वह भी अपनी आत्मा की शुभ दृष्टि के [ कल्याणसाधनविषयक सम्यग्दृष्टि के] आधार पर सम्यक्त्वी है अथवा हो सकता है । 'अन्यलिंग' वालों को अथवा अन्य सम्प्रदाय - वालों
१. विशेषावश्यकभाष्य की दूसरी गाथा ।
२. विशेषावश्यक भाष्य की ११७४वीं गाथा की वृत्ति में ।
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