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________________ तृतीय खण्ड २३७ उतरता है और तदनुसार प्रवृत्ति का सामर्थ्य भी सतेज होता है । कार्य की साधना में उत्साह पैदा करनेवाली और उसे बढ़ानेवाली श्रद्धा ही है । ज्ञान के आधार पर किसी भी बात में प्रवृत्ति की जा सकती है परन्तु वह तभी जोरदार बनती है जब उसे श्रद्धा का सहयोग मिले । इतना अवश्य है कि कार्य करने की कुशलता का आधार ज्ञान पर है, ज्ञान जितना अधिक होगा काम भी उतना ही अच्छा बनाया जा सकेगा, परन्तु यदि श्रद्धा न हो तो वह कार्यप्रवृत्ति जोर नहीं पकड़ सकती, जबकि सुदूरवर्ती भी फल की सिद्धि में श्रद्धा होती है तब इसके (श्रद्धा के) बल पर तत्संबन्धी कार्यप्रवृत्ति में वेग आता है। कार्य में रसोत्पादक श्रद्धा है । और इसी के प्रभाव से कार्यपरायणता उत्साहयुक्त एवं सतेज बनी रहती है । शास्त्र में 'सम्यग्दर्शन' शब्द से भी श्रद्धा का निर्देश किया गया है। ज्ञान का कार्य वस्तु को ठीक-ठीक जान लेना है । परन्तु ज्ञान द्वारा जानी हुई वस्तु के बारे में जिस दृष्टि से कर्तव्य-अकर्तव्य का अथवा हेयउपादेय या विवेक प्रकट होता है वह सम्यग्दर्शन है । विवेकदृष्टि अथवा विवेकमूलक श्रद्धामयी दृष्टि ही सम्यग्दर्शन है । श्रद्धा और अन्धविश्वास में जमीन-आसमान जितना अन्तर है । श्रद्धा विवेकपूत होती है, जबकि अन्धविश्वास 'अन्ध' शब्द से ही विवेकशून्यतावाला जाहिर होता है । विश्वास विवेकसूत होने पर 'श्रद्धा के सुनाम से अभिहित होता है । विवेकदृष्टि द्वारा वस्तु का विवेक किया जाता है और उस तरह बरतने के लिये श्रद्धा की आवश्यकता है । इस प्रकार विवेक और श्रद्धा का घनिष्ठ सम्बन्ध समझा जा सकता है । ज्ञान में जब श्रद्धा का रस मिलता है तब वे दोनों एक-रस हो जाते हैं । उस समय वैसा ज्ञान का एक विशिष्ट तत्त्व बन जाता है । जिस प्रकार दूध में शक्कर घुल जाती है उसी प्रकार ज्ञान में घुली हुई श्रद्धा यह ज्ञान का एक विशिष्ट बल है । इस प्रकार का ज्ञान कल्याण-साधन की मुख्य' १. Knowledge is the wing with which we fly to heaven .---- Shakespeare Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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