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जैनदर्शन
सकता है कि औषध का ज्ञान और उसका सेवन ये दो ही पर्याप्त हैं, अर्थात् सच्चे औषध का यथोचित सेवन ही कार्यकारी है, तो फिर वहाँ श्रद्धा के लिये कौन सा अवकाश है ? परन्तु हमें यह जान लेना चाहिए कि उसमे भी श्रद्धा की आवश्यकता है । औषध का तात्कालिक लाभ मालुम न होने पर मनुष्य अधीर होकर उसे छोड़ देने के लिये तैयार हो जाता है । वह ऐसा न करे और योग्य समय तक उसका सेवन जारी रखे इसके लिए श्रद्धा की भी उपयोगिता है।
अनजान में भी यदि विषभक्षण किया जाय तो भी वह मारक होगा, इसी प्रकार अनजान में कोई अच्छी चीज ले ली जाय तो भी वह शरीर को लाभप्रद होगी, इसमें श्रद्धा-अश्रद्धा का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; इसी प्रकार सच्चा औषध गुणकारक ही होगा, उसके साथ श्रद्धा अश्रद्धा का कुछ भी सरोकार नहीं है -यह बात मान ली जाय तो भी सुख अथवा कल्याण के मार्गरूप सत्य-संयम में तो श्रद्धा की आवश्यकता है ही । यदि श्रद्धा हो तो इस मार्ग में स्थिर रहा जा सकता है । अतः सुख अथवा कल्याण के मार्गरूप सत्य- संयम यदि श्रद्धा, ज्ञान एवं आचरण इन तीनों के विषय बने तभी सुखकारक अथवा कल्याणकारक होंगे, अन्यथा नहीं ।
वैज्ञानिक खोजों की प्रवृत्ति में जैसे-जैसे प्रयोग की सच्चाई का आभास मिलता जाता है वैसे वैसे श्रद्धा जमती जाती है। अतः श्रद्धा ज्ञानपूर्वक ही होती है, और ज्ञानपूर्वक होकर के ही वह सुस्थिर बन सकती है तथा सच्चे अर्थ में श्रद्धा कहला सकती है । मतलब कि श्रद्धा के पीछे ज्ञान-- भान होता ही है । ज्ञान-भान के आधार के बिना श्रद्धा क्या ?
इस तरह श्रद्धा ज्ञानपूर्वक होती है और श्रद्धासम्पन्न ज्ञान का प्रयोग जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे ज्ञान का विकास होता जाता है, और ज्ञान के विकास पर श्रद्धा का भी विकास होता जाता है । इस प्रकार ये दोनों एक-दूसरे के पोषक हैं ।।
श्रद्धा एवं ज्ञान ये दोनों आचरण की अथवा कार्यप्रवृत्ति की नींव जैसे है । श्रद्धा एवं ज्ञान में जितना बल होता है उतना ही वह प्रवृत्ति में
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