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________________ २३९ तृतीय खण्ड को जैन-दर्शनसम्मत 'धर्मास्तिकाय' आदि पदार्थों की खबर न हो, फिर भी वे आत्मश्रद्धा की बलिष्ठ नींव पर सच्चारित्रशील बनकर और वीतरागता की दिशा में पूर्ण प्रगति करके ['अन्यलिंगसिद्धि' के सूत्रानुसार ] मुक्ति-केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । संवर', 'आस्त्रव', 'निर्जरा' आदि शब्द जिसने सुने ही नहीं हैं ऐसा मनुष्य भी यदि यह बराबर समझता हो कि हिंसा आदि मार्ग का अवलम्बन लेने से आत्मा का अहित होगा और अहिंसा-सत्य-संयम के मार्ग पर चलने से ही उसका हित होगा तो वह सम्यग्दृष्टि है । ऐसी. समझ ही सम्यग्दृष्टि की समझ है, ऐसी समझ ही सम्यग्दृष्टि का लक्षण है । हाँ इतना अवश्य है कि ऐसी समझ दृढ लक्षण है । हाँ, इतना अवश्य है कि ऐसी समझ दृढ विश्वासरूप होनी चाहिए, क्योंकि सम्यगदृष्टि रूप से मानी जाने वाली श्रद्धा में एक विशिष्ट प्रकार के विश्वास का भाव समाविष्ट है । शरीर के भीतर परन्तु शरीर से भिन्न और विलक्षण गुणवाला आत्मतत्त्व है और वह योग्य प्रक्रिया के द्वारा जन्म-मरण के चक्र में से मुक्त हो सकता है-ऐसी श्रद्धा रखने का नाम सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व है । और ऐसा नहीं है कि ऐसी श्रद्धा अथवा मान्यता कोई एक ही धर्म अथवा सम्प्रदायवाले रख सकते हों, दूसरे नहीं । कोई भी आत्मवादी, फिर वह चाहे किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय का क्यों न हो, इस प्रकार की श्रद्धा रख सकता है और जो कोई इस श्रद्धा को आचरण में रखकर सम्यक्चारित्र द्वारा रागभाव व कषायभाव से मुक्त हो वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है । आत्मतत्त्वविषयक तत्त्वज्ञान बहुत गहन है । अतः इसे न जानने वाला मनुष्य भी यदि सत्य, अहिंसा के सन्मार्ग में निष्ठा रखे तो वह सम्यक्त्व का १. उपाध्याय श्री यशोविजयजी कहते हैं अन्यलिङ्गादिसिद्धानामाधारः समतैव हि । रत्नत्रयफलप्राप्तेर्यया स्याद् भावजैनता ॥२३॥ --अध्यात्मसार, समताधिकार । अर्थात्-'अन्यलिंग' आदि अवस्थाओं में सिद्ध होनेवालों का आधार समता-समभाव ही है । इस समता के बल पर रत्नत्रय की (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की) प्राप्ति होने सेवे भावजैन बनते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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