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जैनदर्शन धारण कहा जा सकता है । वस्तुतः सत्य, अहिंसा के सन्मार्ग पर की श्रद्धा ही आत्मतत्त्व की श्रद्धा है अथवा आत्मतत्त्व की यथास्थित श्रद्धा के साथ उसका निकटतम सम्बन्ध है । इस श्रद्धा में सात अथवा नौ तत्त्वों की श्रद्धा का सार आ जाता है ।
प्रत्येक प्राणी दुःख से दूर रहने की चेष्टा करता है और सुखी बनने की अभिलाषा रखता है । मैं सुखी बनूँ इस प्रकार की भावना सब जीवों में रहती है । ऐसी भावना में संविदित 'मैं' तत्त्व को कट्टर से कट्टर नास्तिक भी मानता है।
_ 'आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न है' ऐसा अनुभव करने का शास्त्रों में लिखा है इसका अर्थ है स्व-परभेद-विज्ञान । यह स्व-परभेदविज्ञान समझदार नास्तिकों को भी होता है और वह इस तरह : 'मैं तत्त्व को ('मैं' से जिस किसी तत्त्व का संवेदन होता हो उसे) वे'स्व' और शरीर तथा दूसरे बाह्य पदाथों को 'पर' समझते हैं । इस तरह इस 'मैं' तत्त्व को मुख्य आधाररूप में स्थापित करके स्व-संविदित सुखदुःख की इष्टानिष्ट अनुभूति के प्रकाश में दूसरे प्राणियों के सुख-दुःख को समझकर उन्हें सुख सन्तोष देने में वे अपने कर्तव्य का पालन समझते हैं । इसी प्रकार दूसरों के साथ अनीति-अन्याय करने को वे अपकृत्य मानते हैं ऐसा नैतिक मार्ग स्व-पर के लिये आशीर्वादरूप है और इस तरह के सर्वोदय के मार्ग पर विचरण करनेवाला अपने जीवन को धन्य बना जाता है ।
बुद्धि स्वर्ग-नरक आदि परलोक मानने जितनी यदि तैयार न हो, तो भी धर्म की आवश्यकता और उपयोगिता है ही क्योंकि उसका परिणाम प्रत्यक्ष देखा जाता है। जिस प्रकार आहार-विहार का परिणाम शरीर पर स्पष्ट दिखाई देता है उसी प्रकार धर्मचर्या का परिणाम भी मन पर स्पष्ट दिखाई देता है । मन की कलुषित या विकृति दशा का संशोधन अथवा सत्य, संयम, अनुकम्पा आदि भव्य गुणों द्वारा जीवन का संस्करण ही वस्तुतः धर्म पदार्थ है । यह जीवन की स्वाभाविक वस्तु है, यह जीवन की सच्ची स्थिति है, यही सच्चा जीवन है । यह कुछ स्वर्ग-नरक आदि के दार्शनिक तत्त्वज्ञान पर अवलम्बित नहीं है । जीवन की इस सच्ची स्थिति में ही सुख की कुंजी
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