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________________ जैनदर्शन दर्शन से होनेवाला सामान्य बोध इतना अधिक सामान्य स्थिति का हैं कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग् दृष्टि के दर्शन में कुछ फर्क नहीं पड़ता । १८८ सम्यग्दृष्टि के मति, श्रुत एवं अवधि सम्यग्ज्ञानरूप और मिथ्यादृष्टि के वे मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञानरूप माने गए हैं । इस बात पर थोड़ा दृष्टिपात करें । न्यायशास्त्र में विषय के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण और अयथार्थ ज्ञान को अप्रमाण कहा गया है । इस प्रकार का सम्यग् - असम्यग्ज्ञान का विभाग जैन अध्यात्मशास्त्र को मान्य है ही; परन्तु सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञान - इस प्रकार के निरूपण के पीछे जैनदर्शन की एक खास दृष्टि है । और वह यह है कि जिस ज्ञान से आध्यात्मिक उत्कर्ष हो वह सम्यग्ज्ञान और जिस ज्ञान से आध्यात्मिक पतन हो वह मिथ्याज्ञान | सम्यग्दृष्टि जीव को भी संयम हो सकता है, भ्रम हो सकता है, अधूरी समझ हो सकती है, फिर भी वह कदाग्रहरहित और सत्यगवेषक होने से विशेषदर्शी सुज्ञ के अवलम्बन से अपनी भूल सुधारने के लिये तत्पर रहता है और सुधार भी लेता है । वह अपने ज्ञान का उपयोग मुख्यतः विषयवासना के पोषण में न करके आध्यात्मिक विकास के साधन में ही करता है । सम्यग्दृष्टि रहित जीव की स्थिति इससे विपरीत होती है । उसे सामग्री की बहुलता के कारण निश्चयात्मक और स्पष्ट ज्ञान हो सकता है । भूल मालूम होने पर भी उसे सुधारने के लिये वह तैयार नहीं होता । झूठ को भी सच मानने- मनवाने का वह प्रयत्न करता है, सच्ची बात जानने पर भी कदाग्रहादि दोष के कारण, उसे स्वीकारने में हिचकता है । अभिमान के कारण, जो पकडा हो वह चाहे मिथ्या हो, चाहे वह गलत तरीके का हो परन्तु उसे वह छोड़ता नहीं है । अहंकार के आवेश में विशेषदर्शी विज्ञ के विचारों को भी वह तुच्छ मानने लगता है । वह आत्मिकदृष्टि अथवा आत्मभावना से शून्य होता है | अतः अपने ज्ञान का उपयोग वह आध्यात्मिक हितसाधन में न करके सांसारिक भोग-वासना के पोषण में उसे सन्तुष्ट करने में ही करता है । भौतिक उन्नति प्राप्त करने में ही उसके ज्ञान की इतिश्री होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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