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________________ तृतीय खण्ड १८७ सूक्ष्मताओं को जानने में है । जैसे कि, दो मनुष्यों में एक ऐसा है जो अनेक शास्त्रों को जानता है और दूसरा एक ही शास्त्र को जानता है । अब, यदि एक ही शास्त्र को जाननेवाला अपने शास्त्र-विषय को उस अनेक शास्त्रज्ञ मनुष्य की अपेक्षा अधिक गहराई से, अधिक सूक्ष्मता से जानता हो तो उसका उस विषय का ज्ञान उस अनेक शास्त्रज्ञ मनुष्य के ज्ञान की अपेक्षा विशुद्ध कहलायेगा, उच्चतर समझा जायेगा । इसी प्रकार विषय अल्प होने पर भी सूक्ष्मताओं को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशेष रूप से जाननेवाला मन:पर्याय ज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा विशुद्धतर समझा जाता है । अवधिज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष की श्रेणी के हैं। इनमें अन्तिम ज्ञान सर्ववित् (रूपी, अरूपी सर्वविषयग्राही) है, अतः वह सकल प्रत्यक्ष कहलाता है, जबकि पहले के दो (अवधि और मन:पर्याय) अपूर्ण प्रत्यक्ष होने के कारण विकलप्रत्यक्ष कहे गए हैं। अब 'ज्ञान' से पूर्व अल्प समय के लिये चमकनेवाले 'दर्शन' को देखें । इसके चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इस प्रकार चार भेद किए गए हैं। चक्षुद्वारा होनेवाले प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह चक्षुदर्शन और चक्षु के अतिरिक्त दूसरी इन्द्रियों तथा मन द्वारा होनेवाले प्रत्यक्ष से पूर्व जो दर्शन होता है वह अचक्षुर्दर्शन है । अवधिज्ञान से पहले होनेवाला अवधिदर्शन और केवलज्ञान का पूर्ववर्ती केवलदर्शन है । मनःपर्याय ज्ञान के पहले 'दर्शन' नहीं माना' गया । इस बारे में ऐसी कल्पना होती है कि अवधिज्ञान का जो प्रकार मनोद्रव्य का स्पर्श करता है वही विशेष सूक्ष्म होने पर 'मन:पर्यायज्ञान' होता है । अतः इसके पूर्वगामी दर्शन के रूप में अवधिदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी दर्शन की खोज करने की आवश्यकता नहीं है । महान आचार्य सिद्धसेन दिवाकर अपनी 'निश्चयद्वात्रिंशिका' अवधिज्ञान असंख्य भेदवाला होने से मनःपर्याय ज्ञान को उसका एक भेदरूप मान कर उसी में (अवधिज्ञान में) उसे अन्तर्गत करते हैं । १. "मनःपर्यायज्ञानं पटुक्षयोपशमप्रभवत्वाद् विशेषमेव गृह्णद् उत्पद्यते, न सामान्यम्, अतो ज्ञानरूपमेवेदम्, न पुनरिह दर्शनमस्ति ।" -मलधारिकृत विशेषावश्यक-टीका गाथा ८१४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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