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________________ १८६ जैनदर्शन मन:पर्यायज्ञान से दूसरे के मन में जिस वस्तु का चिन्तन हो रहा हो उस वस्तु का ज्ञान नहीं होता, परन्तु विचार करते समय मन की (मनोद्रव्य की) जो आकृतियाँ बनती हैं उन आकृतियों का ही साक्षात्कार होता है । चिन्त्यमान वस्तु का ज्ञान तो पीछे से अनुमान द्वारा होता है । जिस प्रकार हम पुस्तक आदि में छपी हुई लिपि को प्रत्यक्ष देखते हैं उसी प्रकार मनः पर्यायज्ञान मनोद्रव्य की विशिष्ट आकृतियों को प्रत्यक्ष देखता है । इस आकृतियों का साक्षात्कार ही मन:पर्याय की साक्षात्क्रिया है । परन्तु लिपिदर्शन पर से (लिपि पढ़कर) हमें जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु शब्दबोध (श्रुतज्ञान) है उसी प्रकार मनोद्रव्य की विशिष्ट आकृतियों के दर्शन (साक्षात्कार) से जो चिन्त्यमान वस्तुओं का ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमानज्ञान है और वह मन:पर्याय की सीमा की बाहर का है । अवधि और मन:पर्याय के बीच विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय द्वारा भेद बतलाया जाता है ।। अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्यायज्ञान अपने विषय को अधिक स्पष्टरूप से जानता है । यह हुआ विशुद्धिकृत भेद । कोई अवधिज्ञान अत्यन्त अल्प सीमा का स्पर्श करता है तो कोई उससे कुछ अधिक सीमा का । यह तारतम्य असंख्य प्रकार का है । इससे अवधिज्ञान के असंख्य भेद होते हैं। उच्चतम अवधिज्ञान सम्पूर्ण लोक का (समग्र लोक के सम्पूर्ण रूपी द्रव्यों का) स्पर्श करता है-उसे जानता है, जबकि मन:पर्यायज्ञान का विषय क्षेत्र ही है । यह हुआ क्षेत्रकृत भेद । अवधिज्ञान का स्वामी मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक चारों गति के जीव हो सकते हैं, जबकि मन:पर्यायज्ञान का स्वामी केवल सर्वविरत मनुष्य ही हो सकता है । यह हुआ स्वामीकृत भेद । अवधि का विषय उत्कृष्ट रूप से सम्पूर्ण रूपी द्रव्य हैं, जबकि मनःपर्यायज्ञान का विषय उसका अनन्तवाँ भाग है, अर्थात् केवल मनोद्रव्य है । यह हुआ विषयकृत भेद । मनःपर्यायज्ञान का विषय अल्प होने पर भी अवधि ज्ञान की अपेक्षा वह विशुद्धतर माना गया है । इसका कारण स्पष्ट है । विशुद्धि का आधार विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं, किन्तु विषय में रही हुई न्यूनाधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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